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क्या है ॐ ध्वनि का रहस्य भाग

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वास्तव में, स्त्री शरीर भी अधूरा शरीर है और पुरुष शरीर भी अधूरा शरीर है; इसलिए सृजन के क्रम में उन दोनों को संयुक्त होना पड़ता है। यह संयुक्त होना दो प्रकार का है। एक पुरुष का शरीर अगर बाहर की स्त्री से संयुक्त हो, तो प्रकृति का सृजन होता है तो प्रकृति की तरफ यात्रा शुरू होती है।


और एक पुरुष का शरीर अगर अपने ही पीछे छिपे स्त्री शरीर से संयुक्त हो, तो ब्रह्म की तरफ का जन्म शुरू होता है ; परमात्मा की तरफ यात्रा शुरू होती है। ऊर्ध्वगमन का यात्रा पथ यही है..भीतर की स्त्री से संबंधित होना, और भीतर के पुरुष से संबंधित होना।


वास्तव में ,जो ऊर्जा है, वह सदा पुरुष से स्त्री की तरफ बहती है ...चाहे वह बाहर की तरफ बहे और चाहे वह भीतर की तरफ बहे। अगर पुरुष के भौतिक शरीर की ऊर्जा भीतर के स्त्री शरीर के प्रति बहे, तो फिर ऊर्जा बाहर विकीर्ण नहीं होती -ब्रह्मचर्य की साधना का यही अर्थ है।


 तब वह निरंतर ऊपर चढ़ती जाती है। चौथे शरीर तक उस ऊर्जा की यात्रा हो सकती है। चौथे शरीर पर ब्रह्मचर्य पूरा हो जाता है। इसके बाद ब्रह्मचर्य जैसी कोई चीज नहीं है; क्योंकि चौथे शरीर को पार करने के बाद साधक न पुरुष है और न स्त्री है।


अब यह जो एक नंबर का शरीर और दो नंबर का शरीर है, इसी को ध्यान में रखकर अर्धनारीश्वर की कल्पना कभी हमने चित्रित की थी। बाकी वह प्रतीक बनकर रह गई और हम उसे कभी समझ नहीं पाए। शिव शंकर अधूरे हैं,देवी पार्वती अधूरी है ..वे दोनों मिलकर एक हैं।


अर्धनारीश्वर का कि आधा अंग पुरुष का है, आधा स्त्री का है। यह जो आधा दूसरा अंग है, यह बाहर प्रकट नहीं है, यह प्रत्येक के भीतर छिपा है। तुम्हारा एक पहलू पुरुष का है, तुम्हारा दूसरा पहलू स्त्री का है। वास्तव  में, ये एक -दूसरे के परिपूरक हैं,ये दो इकाइयां नहीं हैं, ये एक ही इकाई के दो पहलू हैं।


आप देखेंगे कि पुरुष जब दिनभर कार्य करता तो उसका पहला शरीर थक जाता है। घर लौटते-लौटते वह पहला शरीर विश्राम चाहता है। भीतर का स्त्री शरीर प्रमुख हो जाता है, पुरुष शरीर गौण हो जाता है। स्त्री दिन भर स्त्री रहते-रहते पहला शरीर थक जाता है, उसका दूसरा शरीर प्रमुख हो जाता है।


इसलिए स्त्री पुरुष का व्यवहार करने लगती है और पुरुष स्त्री का व्यवहार करने लगता है ...रिवर्सन हो जाता है। ऊर्जा के आंतरिक प्रवाह ऊर्ध्व गमन का मार्ग है कि बाहर के पुरुष का भीतर की स्त्री से मिलन या बाहर की स्त्री का भीतर के पुरुष से मिलन। 


पुरुष शरीर के जो विशेष गुण हैं, वह पहला गुण यह है कि वह आक्रामक है ,दाता है, दे सकता है, ले नहीं सकता। लेकिन पुरुष ग्रहण नहीं कर पाता; उसकी ग्रहण करने की क्षमता बहुत कम है। इसलिए पुरुषों ने धर्म को जन्म तो दिया, लेकिन पुरुष धर्म का संग्रह नहीं करते।


बल्कि स्त्रियां धर्म का संग्रह करती है। स्त्री दे नहीं सकती, ले सकती है।परन्तु इस ब्रह्मांड की सबसे बड़ी महिमा यही है कि जिसका पहला शरीर स्त्री का है ;उसका दूसरा शरीर पुरुष का;पुनः तीसरा शरीर स्त्री का और चौथा पुरुष का। इस प्रकार जिसका पहला शरीर पुरुष का है।


 उसका दूसरा शरीर स्त्री का ;पुनः तीसरा पुरुष का और चौथा स्त्री का। चौथे शरीर के बाद स्त्री पुरुष शरीर का भेद भी खत्म हो जाता है। उनका ऊर्ध्व गमन हो जाता है। जिसका पहला शरीर स्त्री का है ;उसका चौथा शरीर पुरुष का है। जिसका पहला शरीर पुरुष का है ;उसका चौथा शरीर स्त्री का है।


इसलिए चौथे शरीर में स्त्रियां देने वाली है दाता है और चौथे शरीर में पुरुष लेने वाले भिक्षुक हैं। सांसारिक जगत में 3 शरीरों का वर्चस्व है। परंतु आध्यात्मिक जगत में यात्रा चौथे शरीर से ही शुरू होती है। स्त्रैण व्यक्तित्व का मतलब यह है कि उनमें स्त्रैण गुण हैं।


कोमलता, प्रेम, ममता, करुणा और अहिंसा आदि वे बढ़ गए; हिंसा क्रोध खत्म हो गया, आक्रमण विदा हो गया। जब भी कोई मुल्क आध्यात्मिक होगा, तो स्त्रैण हो जाएगा; और जब भी स्त्रैण होगा, तब अपने से बहुत साधारण सभ्यताएं उसको हरा देंगी।


सामान्य चौथे शरीर मे ॐ ध्वनि सुनने लगती ओर यात्रा पूर्ण समझ लोग रुक जाते। किन्तु गुरु परंपरा में गुरुजन सदैव कहते कि चौथे शरीर में जल्द आगे बढ़ो साधना समय दोगुना कर दो। क्योकि अगला शरीर आत्म शरीर है वही आपका पहला जन्म होगा स्वयं से। 


उससे पहले न जन्म है न मृत्यु हम किसी ओर के गर्भ से जन्म लेते रहते यह जीवन चक्र यू ही चलता रहता। आत्म शरीर स्वयं से जन्म लेता फिर आप को पराए गर्भ से मुक्ति मिल जाती। इसे मुक्ति कहा है यह मोक्ष या निर्वाण नही है अभी यात्रा बाकी है। 


उदहारण के लिए बौद्ध तिब्बत से निकाल दिए गए या भारत को जिन लोगों ने हराया, वे भारत से बहुत पिछड़ी हुई सभ्यताएं , एक अर्थ में बिलकुल बर्बर सभ्यताएं थीं। लेकिन हम अध्यात्म में दाता हो गए थे, हम उनको आत्मसात ही कर सके, लड़ने का कोई उपाय न था।


तो ऐसी प्रक्रियाएं हैं कि इसी हालत में व्यक्तित्व का रूपांतरण किया जा सकता है..जो तुम्हारा नंबर दो का शरीर है, वह तुम्हारे नंबर एक का शरीर हो सकता है; और जो तुम्हारे नंबर एक का शरीर है, वह तुम्हारे नंबर दो का शरीर हो सकता है। 


इसके लिए प्रगाढ़ संकल्प की साधनाएं हैं, जिनसे तुम्हारा इसी जीवन में भी शरीर रूपांतरित हो सकता है। परंतु समस्या तब आती है जब हम चौथे शरीर पर ही रुक जाते हैं। चौथे शरीर के बाद पांचवें ,छठवें और सातवें शरीर की भी तो यात्रा है।


भारत चौथे शरीर पर ही रुक गया इसलिए हार गया। उदाहरण के लिए  गोपिओं को श्री कृष्ण सखी प्रतीत होते हैं; परंतु क्या महाभारत में भी उनका व्यक्तित्व ऐसा है? नही, क्योंकि उनकी यात्रा छटे शरीर की हैं। श्री कृष्ण छटे ब्रह्म शरीर मे है । भारत चौथे शरीर पर रुक गया तो हार गया।


इसीलिए चौथे शरीर के बाद रुकना नहीं हैं... सातवें शरीर तक जाना हैं। राग से शुरू कर वैराग्य के रास्ते वीतरागता तक जाना वैराग्य पर रुकना नही है। जो संसार मे लिप्त होता उसे रागी कहते ओर जो संसार को मिथ्या मान दूर भागता उसे वैरागी कहते। 


राग ओर वैराग्य से ऊपर की अवस्था होती वीतरागता। यहाँ न संसार को पकड़ा होता न ही छोड़ा होता। पूर्ण आनन्द की अवस्था होती यह। जहाँ सांसारिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए योगी जन मोक्ष की तरफ बढ़ते रहते राजा जनक की तरह। 


ॐ ध्वनि चौथे शरीर पर सुनाई देती आगे की यात्रा निःशब्द है इस लिए इसे सातवे का प्रतीक माना गया किंतु ॐ ध्वनि सुनने के उपरांत भी बढ़ते रहना है ।Sabhar kundalni shadhana avam yog Facebook wall

टिप्पणियाँ

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