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कुण्डलिनी जागरण के बाद क्या होता है

आत्मजागृत व्यक्ति अपनी कुंडलिनी के द्वारा धीरे-धीरे और सहज रूप से आकर्षित किया जाने लगता है। यदि कुण्डलिनी का ध्यान जारी रखा जाता है, तो वह आकर्षण और भी मजबूत और तेज होता जाता है। 1-3 साल के भीतर, मनुष्य की बुद्धि हमेशा कुंडलिनी से भरी रहने लगती है। वह कुंडलिनी-चेतना के रूप में सदैव अभिव्यक्त है। वह अपने व्यक्तिगत अहंकार को खो देता है, और कुंडलिनी-अहंकार के रूप में मौजूद रहता है। कुंडलिनी छवि हमेशा उसके अपने दिमाग में रहती है, चाहे वह काम कर रहा हो या न कर रहा हो। उसके लिए सब कुछ वास्तविक दिखने वाला जागृतकाल का जगत अपनी चमकती कुंडलिनी के सामने सपनों की तरह आभासी या अवास्तविक जैसा होता है, वैसे ही जैसे मोमबत्ती सूर्य के सामने महत्त्वहीन प्रतीत होती है। वह सम्प्रज्ञात समाधि है। उसके मस्तिष्क में कुंडलिनी के रूप में जमा मानसिक ऊर्जा उसे थका हुआ या अस्थिर बनाती है, और वह लंबे समय तक उसके साथ रहने के बाद उससे ऊब जैसा जाता है। इसलिए फिर सहजता से वह उससे छुटकारा पाना चाहता है। इसके लिए समाधान केवल आत्मज्ञान ही है, क्योंकि वह कुंडलिनी से अधिक ऊर्जावान / प्रकाशमान / असली होता है, और उसमें कोई भी एक विशेष छवि विद्यमान नहीं होती है, कुंडलिनीज्ञान के विपरीत। उसके अंदर सब कुछ सामान रूप से होता है, इसलिए वही कुंडलिनी-ऊर्जा के लिए असली सिंक / अवशोषक होता है। यदि सूर्य के रूप में कुंडलिनी पर विचार करें, तो आत्मज्ञान अरबों सूर्यों को समावेशित करने वाली आकाशगंगा है। सहजता से वह गुरु या किसी दयालु / आध्यात्मिक व्यक्ति को खोजकर, उसे अपनी हालत के प्रति सहानुभूति प्रदान करने वाला बना देता है, जो तब उसकी कुंडलिनीलेस / कुण्डलिनीरहित स्थिति को प्राप्त करने और उसे नियंत्रित करने / प्रबंधित करने में मदद करता है। यह कुंडलिनीरहित हालत ही असम्प्रज्ञात समाधि है। क्योंकि उसका सभी कुछ, यहां तक कि उसका अपना रूप/अहंकार भी कुण्डलिनी के साथ जुड़ चुका होता है, इसलिए कुण्डलिनी के नष्ट होने के साथ उसका सब कुछ नष्ट हो जाता है। वह पूर्ण रूप से अहंकार-रहित अर्थात शून्य बन जाता है। इस बीच, झलकरूप में आत्मज्ञान भी उसकी सहायता करने के लिए नीचे उतर कर उसके मानसपटल पर छा जाता है, और उसे कुंडलिनीरहित मिशन / अभियान को सहजता से और लंबे समय तक आगे ले जाने में सहायता देता है। वास्तव में पूर्ण शून्यता ही तो आत्मज्ञान है। वास्तव में वह कुण्डलिनी रहित नहीं होता, पर कुण्डलिनी के प्रति पूर्णतः अनासक्त हो जाता है। कुण्डलिनी के माध्यम से ही तो आत्मज्ञान मन में अभिव्यक्त होता है। इसलिए कुण्डलिनी तो बनी ही रहती है। इस बीच, बाद में उसकी दूसरी बार भी कुंडलिनी-जागृति हो सकती है। कुंडलिनी-पानी ध्यान-साधना की आग से धीरे-धीरे गर्म होता रहता है, जागरण के उबाल तक, और फिर एकदम से ठंडा हो जाता है। इसके बाद, वह फिर से गर्म होना शुरू हो जाता है, और इसी तरह का कोर्स लेता है, हालांकि यह पहले की तुलना में कम समय-अवधि का हो सकता है। मेरे साथ सबकुछ मेरे पिछले अच्छे कर्मों के कारण सहजता से हुआ। आध्यात्मिक मास्टर मेरे घर में ही था। वे आध्यात्मिक शास्त्रों को, मुख्य रूप से पुराणों को पढ़ा करते थे। वे कभी भी मेरी तांत्रिक कुंडलिनी के बारे में नहीं जान पाए, और न ही उन्होंने उसके लिए कोई स्वैच्छिक प्रयास ही किया। मैं केवलमात्र उनकी कंपनी / संगति के कारण ही सहजता से उनकी सहायता प्राप्त कर पाया, अर्थात उनसे कभी सहायता नहीं माँगी। यही सद्संगति की महान महिमा है। मैं उपरोक्त उत्तर को और अधिक स्पष्ट करता हूँ. वास्तव में आत्मज्ञान और कुण्डलिनी जागरण का एक जैसा प्रभाव है. दोनों एक ही चीज है. दोनों के बाद कुण्डलिनी सर्वाधिक मजबूती के साथ मन में स्थिर हो जाती है. आत्मज्ञान के बाद थोड़ा ज्यादा मजबूत होती है, पर केवल प्रथम ३ साल के लिए ही. उसके बाद दोनों में कुण्डलिनी का स्तर समान रहता है. जब आदमी आत्मज्ञान को याद करने का प्रयत्न करता है, तो वह तो ढंग से याद नहीं आता, पर उसके बदले कुण्डलिनी मन में छा जाती है, जो अद्वैत और आनंद को पैदा करती है. इसका मतलब है कि यदि कोई रोज के कुण्डलिनी योग अभ्यास से अपने मन में कुण्डलिनी को हमेशा ज़िंदा रखे, तो वह आत्मज्ञानी माना जाएगा. ऐसा भी माना जाएगा कि उसकी कुण्डलिनी जागृत हो चुकी है. सीधे तौर पर इन्हें प्राप्त करने की जरूरत नहीं. यही कुण्डलिनी योग का महत्त्व है. बस इतनी सी बात है. sabhar : Bhism Sharma qwera.com

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