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क्या यह संसार वास्तविकता है या मात्र एक भ्रामक सपना

 क्या यह संसार वास्तविकता है या मात्र एक भ्रामक सपना?


कल्पना कीजिए, आप एक फिल्म थिएटर में बैठे हैं। स्क्रीन पर चल रही फिल्म आपको हँसा सकती है, रुला सकती है, यहाँ तक कि आपको उसमें डूब जाने को मजबूर कर सकती है। लेकिन अचानक कोई आपको याद दिलाए कि यह सब केवल एक प्रोजेक्शन है—कुछ भी असली नहीं है! क्या यह संभव नहीं कि हमारी पूरी ज़िंदगी भी वैसी ही हो—एक भव्य फिल्म, जिसे हम वास्तविक मानने की भूल कर रहे हैं?


वेदांत कहता है कि यह संसार माया है—एक भ्रम, जो सत्य को छुपाकर हमारे सामने एक आभासी दुनिया प्रस्तुत करता है। शंकराचार्य कहते हैं—


"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।"

(ब्रह्म ही सत्य है, यह संसार मिथ्या है, और जीव ब्रह्म के अलावा कुछ नहीं है।)


इसका तात्पर्य यह है कि संसार में जो कुछ भी हमें दिख रहा है, वह परिवर्तनशील और अस्थायी है, इसलिए वह अंतिम सत्य नहीं हो सकता। जैसे कोई सपना वास्तविक प्रतीत होता है, लेकिन जागने के बाद उसकी कोई सच्चाई नहीं होती, वैसे ही यह भौतिक जगत भी एक अस्थायी आभास है। केवल ब्रह्म ही एकमात्र शाश्वत सत्य है, और प्रत्येक जीव भी मूलतः उसी ब्रह्म का ही अंश है।


लेकिन यह माया इतनी वास्तविक क्यों लगती है? क्या आधुनिक विज्ञान भी अब यह मानने लगा है कि यह ब्रह्मांड केवल एक प्रोजेक्शन हो सकता है?


एक जादूगर जब मंच पर जादू दिखाता है, तो उसकी चालाकी हमें दिखती नहीं—हम केवल उसका प्रभाव देखते हैं। ठीक यही कार्य माया करती है। श्वेताश्वतर उपनिषद में कहा गया है—


"मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्।"

(माया प्रकृति है, और इसे नियंत्रित करने वाला परमेश्वर है।)


हम जब स्वप्न देखते हैं, तो हमें उसमें सबकुछ असली लगता है। लेकिन जैसे ही हम जागते हैं, हमें समझ आता है कि वह मात्र एक सपना था। क्या यह संभव नहीं कि यह जाग्रत अवस्था भी वैसा ही एक सपना हो, जिसे हम मृत्यु के बाद ही समझ पाते हैं?


आधुनिक विज्ञान अब यह मानने लगा है कि यह ब्रह्मांड उतना ठोस नहीं है जितना हमें प्रतीत होता है। Quantum Mechanics के प्रसिद्ध Double-Slit Experiment ने वैज्ञानिकों को चौंका दिया।


इस प्रयोग में, जब वैज्ञानिकों ने एक कण को देखा, तो वह एक ठोस वस्तु की तरह व्यवहार कर रहा था।


लेकिन जब उसे नहीं देखा गया, तो वह एक तरंग (Wave) की तरह फैल गया।


इसका मतलब यह हुआ कि हमारी वास्तविकता हमारी चेतना पर निर्भर करती है—जब तक कोई देख नहीं रहा, तब तक ब्रह्मांड निश्चित रूप नहीं लेता।


यह ठीक वैसा ही है जैसे वीडियो गेम में! जब आप किसी गेम में आगे बढ़ते हैं, तो रास्ता तभी दिखाई देता है जब कैमरा उसे कवर करता है। अगर कैमरा नहीं घूमा, तो वहाँ कुछ भी नहीं होता!


अब सोचिए—क्या यह संभव नहीं कि हमारी पूरी दुनिया भी किसी "Cosmic Simulation" का हिस्सा हो?


ब्रिटिश वैज्ञानिक David Bohm ने कहा कि यह ब्रह्मांड एक Holographic Universe हो सकता है—एक विशाल होलोग्राम, जिसे कहीं और से प्रक्षिप्त किया जा रहा है।


भगवद गीता (2.16) कहती है—

"नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।"

(असत्य का कोई अस्तित्व नहीं, और सत्य का कभी अभाव नहीं होता।)


कैसे तोड़े इस भ्रम को?


अगर यह दुनिया वास्तव में एक प्रोजेक्शन मात्र है, तो क्या हम इससे बाहर निकल सकते हैं? वेदांत कहता है कि हाँ, लेकिन इसके लिए हमें सही दृष्टि अपनानी होगी। जिस तरह कोई सोया हुआ व्यक्ति सपने में उलझा रहता है, लेकिन जागते ही समझ जाता है कि वह केवल एक भ्रम था, वैसे ही इस जगत से पार पाने के लिए हमें साक्षी भाव में आना होगा। इसके तीन प्रमुख मार्ग हैं—ज्ञान, भक्ति और ध्यान।


 ज्ञान का मार्ग


कल्पना कीजिए कि कोई आदमी अंधेरे में रस्सी को साँप समझकर डर जाता है। लेकिन जैसे ही प्रकाश पड़ता है, उसे एहसास होता है कि वहाँ कोई साँप था ही नहीं—यह केवल उसकी आँखों का धोखा था। यही भूमिका ज्ञान योग की है। जब हमें यह समझ आ जाता है कि यह संसार अस्थायी है और केवल आत्मा ही शाश्वत है, तो माया का प्रभाव स्वतः समाप्त हो जाता है। जैसे ही व्यक्ति "मैं शरीर नहीं, मैं आत्मा हूँ" का अनुभव करता है, माया का जाल टूटने लगता है।


भक्ति योग: प्रेम और समर्पण का मार्ग


क्या आपने कभी कोई सपना देखा है जिसमें आप किसी मुसीबत में थे, लेकिन अचानक किसी ने आकर आपको बचा लिया? फिर जब आप जागे, तो समझ आया कि वह केवल सपना था। इसी तरह, जब हम परमात्मा की शरण में जाते हैं और पूर्ण विश्वास रखते हैं कि वही हमारी वास्तविकता का आधार है, तब माया हमें भ्रमित नहीं कर सकती। भगवद गीता (7.14) में भगवान कृष्ण कहते हैं—

"मेरी माया अत्यंत शक्तिशाली है, लेकिन जो मेरी शरण में आते हैं, वे इसे पार कर जाते हैं।"

पूर्ण समर्पण से हमारी चेतना उस परम वास्तविकता से जुड़ने लगती है, जिससे यह सारा जगत उत्पन्न हुआ है।


 ध्यान और आत्मनिरीक्षण: साक्षी भाव का मार्ग


कभी आपने समुद्र को ध्यान से देखा है? जब सतह पर तूफान होता है, तो लहरें उग्र दिखती हैं, लेकिन समुद्र की गहराई में सब शांत रहता है। हमारा मन भी ऐसा ही है—बाहर से अशांत, लेकिन भीतर पूर्ण शांति। जब हम ध्यान करते हैं और स्वयं को एक साक्षी के रूप में देखते हैं, तब हम धीरे-धीरे इस माया से परे जाने लगते हैं। जब मन पूर्ण रूप से शांत होता है, तो हमें अहसास होता है कि यह संसार केवल एक दृश्य है, और हम उसके देखने वाले मात्र हैं।


 याद रखिए—माया केवल उतनी ही वास्तविक है, जितनी हम उसे मानते हैं। जैसे ही आप सत्य को पहचानेंगे, यह दुनिया भी एक सपने की तरह प्रतीत होगी, और आप वास्तविक जागरण की ओर बढ़ेंगे। साभार Facebook 

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