------------:कुण्डलिनी साधना की सिद्धि सर्वोच्च सिद्धि है:------------
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परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन
पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन
कुण्डलिनी साधना योग-तंत्र का सार है जिसमें साधना और मन्त्र-क्रिया दोनों हैं। कुण्डलिनी साधना की सिद्धि सर्वोच्च सिद्धि है। साधक इस साधना के बल पर सर्वोच्च ज्ञान को हो जाता है उपलब्ध।
कुण्डलिनी साधना को लोगों ने इतना जटिल और रहस्यमयी बना दिया है कि साधारण लोगों को भ्रम-सा होने लगता है। कहने का तात्पर्य है कि कुण्डलिनी साधना भारतीय साधकों के शोध और कठोर परिश्रम का परिणाम है। यह साधना मानव के लिए जगत में जीने की और जगत पर विजय प्राप्त करने की क्रिया है। इस साधना के बल पर मानव पशुवत जीवन से निकल कर दिव्य मानव बनता है। राग, द्वेष, ईर्ष्या, क्रोध, लालच, वासना आदि के कारण मानव पशुवत जीवन जीता रहता है। लेकिन कुण्डलिनी साधना से मानव धीरे-धीरे इन वासनाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है। वह सरोवर की तरह शांत हो जाता है। बुद्ध की तरह वीतराग हो जाता है, महावीर की तरह निस्पृह और तटस्थ हो जाता है और हो जाता है कृष्ण की तरह आनंद और प्रफुल्लता का उत्तुंग शिखर। चाहे जितना दुःख मिले, वह साक्षी भाव से समाज में जीता है।
चेतना सब जगह व्याप्त है। भारत के ऋषिगण प्राचीन काल से ही इसके महत्व को भलीभांति जानते थे। इसी के बल पर उन्होंने प्रकृति के सत्य को जाना और समझा है।
दुर्भाग्य की बात है कि विज्ञान आज भी चेतना के विषय में शोध कर रहा है। उसे चेतना के रहस्य की विराट शक्ति का भान तो है लेकिन तर्क के कारण अभी भी स्वीकार नहीं कर पा रहा है। विज्ञान और अध्यात्म में यही अंतर है। विज्ञान तर्क को लेकर चलता है और अध्यात्म विश्वास को लेकर। वही विश्वास जब घनीभूत हो जाता है, तब वह ज्ञान में रूपांतरित हो जाता है। हमारे ऋषियों ने जब साधना की किसी क्रिया पर शोध किया तो उन्होंने उस क्रिया पर पूर्ण विश्वास रखा। बिना विश्वास के कोई साधना सफल नहीं हो पाती। पूर्ण विश्वास और पूर्ण समर्पण से ही साधना में देवी ऊर्जा का प्रभाव दिखने लगता है, तभी वह साधना 'ज्ञान' रूप में प्रकट हो पाती है।
मानवीय संपत्ति है--प्रेम, दया, करुणा, प्रसन्नता, परोपकार और पशुविक प्रवृत्ति है--ईर्ष्या, द्वेष, लालच, घृणा, क्रोध, क्रूरता और स्वयं को ही सब कुछ समझना। कुण्डलिनी साधना हमें धीरे-धीरे मानवीय संपत्ति की ओर अग्रसर करती है। इससे भी आगे चलकर कुण्डलिनी साधना हमें मानवीय संपत्ति और पशुविक प्रवृत्ति-- दोनों के अस्तित्व से परे कर देती है। फिर साधक के भीतर अच्छाई और बुराई का भेद मिट जाता है। वह समदर्शी हो जाता है। समदर्शी होते ही उसके भीतर आत्म-प्रकाश प्रस्फुटित होने लगता है।
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वैज्ञानिकों को इंडोनेशियाई वर्षावन के अंदरूनी हिस्सों में एक ऐसा मेंढक मिला है जो अंडे देने के बजाय सीधे बच्चे को जन्म देता है. एशिया में मेंढकों की एक खास प्रजाति 'लिम्नोनेक्टेस लार्वीपार्टस' की खोज कुछ दशक पहले इंडोनेशियाई रिसर्चर जोको इस्कांदर ने की थी. वैज्ञानिकों को लगता था कि यह मेंढक अंडों की जगह सीधे टैडपोल पैदा कर सकता है, लेकिन किसी ने भी इनमें प्रजनन की प्रक्रिया को देखा नहीं था. पहली बार रिसर्चरों को एक ऐसा मेंढक मिला है जिसमें मादा ने अंडे नहीं बल्कि सीधे टैडपोल को जन्म दिया. मेंढक के जीवन चक्र में सबसे पहले अंडों के निषेचित होने के बाद उससे टैडपोल निकलते हैं जो कि एक पूर्ण विकसित मेंढक बनने तक की प्रक्रिया में पहली अवस्था है. टैडपोल का शरीर अर्धविकसित दिखाई देता है. इसके सबूत तब मिले जब बर्कले की कैलिफोर्निया यूनीवर्सिटी के रिसर्चर जिम मैकग्वायर इंडोनेशिया के सुलावेसी द्वीप के वर्षावन में मेंढकों के प्रजनन संबंधी व्यवहार पर रिसर्च कर रहे थे. इसी दौरान उन्हें यह खास मेंढक मिला जिसे पहले वह नर समझ रहे थे. गौर से देखने पर पता चला कि वह एक मादा मेंढक है, जिसके...
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