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योग शरीर और विज्ञान

---------------:योग और मेरुदण्ड:---------------
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परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन

पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि वन्दन

      साधना की दृष्टि से मानव शरीर में जितने महत्वपूर्ण अंग हैं, उनमें सर्वाधिक मूल्यवान, सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है--'मेरुदण्ड'। मेरुदण्ड यानी रीढ़ की हड्डी। जिन हड्डियों के छोटे-छोटे टुकड़ों से मेरुदण्ड का निर्माण होता है, उनकी संख्या 84 है जिनका अगोचर सम्बन्ध जीवात्मा के 84 लाख योनियों से बतलाया गया है। प्रत्येक अस्थि-खण्ड में एक लाख योनियों के संस्कार विद्यमान हैं। 84 अस्थि-खंडों की श्रृंखला वाले इस मेरु-दण्ड के ऊपरी सिरे पर स्थितिशील ऊर्जा (स्टेटिक एनर्जी) यानी परात्पर 'शिवतत्त्व' की स्थिति है। इसी प्रकार इसके नीचे वाले सिरे पर गतिशील ऊर्जा (डायनेमिक एनर्जी) यानी शक्तितत्त्व या पराशक्ति की स्थिति है। योग की भाषा में इन्हीं दोनों सिरों को क्रमशः 'सहस्त्रार चक्र' और 'मूलाधार चक्र' कहते हैं। इन दोनों चक्र-बिंदुओं को तंत्र में ऊर्ध्व त्रिकोण और अधो त्रिकोण के रूप में परिकल्पित किया गया है। प्रथम चक्र-बिंदु पर जहाँ परात्पर शिवतत्त्व की स्थिति है, वहां शरीर और मन का मिलन होता है, इसी प्रकार दूसरे चक्र-बिन्दु पर जहां पराशक्ति तत्व की स्थिति है, वहां शरीर और आत्मा का मिलन होता है।
      मन और आत्मा का मिलन-केंद्र को योग की भाषा में 'अनाहत चक्र' कहते हैं। सहस्त्रार, मूलाधार और अनाहत के अलावा चार और चक्र हैं। तंत्र के अनुसार ये तीनों महत्वपूर्ण चक्र महाचक्र हैं। महाचक्रों का सम्बन्ध ॐ से बतलाया गया है। ॐ का ऊपरी भाग सहस्त्रार है, मध्य भाग अनाहत है और निम्न भाग मूलाधार है। ॐ में तीन ध्वनियां हैं--अ, उ और म्। अ और उ स्वर और म् व्यंजन है। सभी ध्वनियों और वर्णाक्षरों का लय म् में ही होता है। मेरुदण्ड के ऊपर अ, मध्य में उ और नीचे म् की स्थिति है। इस प्रकार पूरा मेरुदण्ड 'ॐ' से युक्त है। इन तीनों की समवेत ध्वनि को योग-तंत्र की भाषा में 'परावाक' कहते हैं। शरीर के भीतर इन तीनों के अपने-अपने केंद्रों से वैसे तो अलग-अलग ध्वनि निकलती है, पर एक स्थान विशेष पर ये तीनों ध्वनियां आपस में मिलकर परावाक का रूप धारण कर लेती हैं।
      वह स्थान विशेष कहाँ है ?
      वह स्थान विशेष है--नाभि (मणिपूरक चक्र) यह परावाक शक्ति का ही स्थान है। पराशक्ति ही परावाक रूप में व्यक्त होकर स्वरों और बाद में वर्णाक्षरों का निर्माण करती है। मगर उस निर्माण का एक क्रम है और उसी क्रम को 'परा', 'पश्यन्ति', 'मध्यमा' और 'बैखरी' कहते हैं। यदि इन चारों को परावाक के चार रूप कहा जाय तो साधुतर होगा।
      स्वर और वर्णाक्षरों की उत्पत्ति की दिशा में परावाक के ये रूप तो हैं ही, इनके अलावा उसके दो और गरिमामय रूप हैं जिन्हें 'भाव' और 'विचार' कहते हैं। प्रथम भाव की उत्पत्ति होती है और फिर बाद में विचार की। भाव कारण है और विचार है उसका परिणाम। sabhar sivram Tiwari Facebook wall

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