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ब्रह्म और पंचतत्वों का आपस में सामंजस्य-संक्षिप्त विमर्श

 ब्रह्म और पंचतत्वों का आपस में सामंजस्य-संक्षिप्त विमर्श  

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जो भेद दृष्टि रखते हैं न तो वे पूर्णतः शाक्त हैं न वैष्णव न शैव न ही गाणपत्य और न ही सौर्य।


चूंकि ब्रह्म है तो एक ही यथा "एकोहि रुद्रं द्वितीयोनाऽस्ति। 


किंतु वह अपने कार्य भेद से अनेकों रुपों में विभक्त होकर साकार रूप ग्रहण कर लेता है - एकोऽहंबहुस्याम:। 


जिस प्रकार से मनुष्य देह पंचतत्वों में विभक्त है। उसी प्रकार से वह ब्रह्म भी अपने आप को पांच तत्वों (पंच मुख्य स्वरुपों में ) पंचब्रह्म के रूप में विभक्त करता है। यथा: गणपति, सूर्य, विष्णु, शिव और शक्ति। यहां पर शक्ति का तात्पर्य किसी विशेष शक्ति से मत जोड़ लेना। क्योंकि कुछ लोग उस शक्ति को केवल दुर्गा, काली, तारा, भुवनेश्वरी, त्रिपुर सुंदरी, महालक्ष्मी, चण्डिका आदि तक ही सीमित समझ बैठते हैं। क्योंकि शक्ति के तो असंख्य, अनगिनत और अनंत रुप हैं। ये सब तो केवल कार्यभेद के अनुसार नामांतर मात्र हैं। 


वही ब्रह्म जब ब्रह्माण्डोंं की रचना करता है तो सूर्य कहलाता है। आज का विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार करता है कि सूर्य से ही पृथ्वी सहित अनेकों ग्रह नक्षत्रों व अनेकानेक ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई है। इसलिए सूर्य को वेदों में जगत की आत्मा कहा गया है। सूर्य की ही अनुग्रह शक्ति से ही हम इस दृश्यमान और अदृश्यमान जगत का दर्शन कर पाने में सक्षम हो पाते हैं। इसीलिए सूर्य को ही जगत् का चक्षु कहा गया है। मनुष्य तो छोड़ो पेड़ पौधे भी सूर्य के अभाव में अपना भोजन बनाने में सक्षम नहीं हैं। सूर्य ही जगत के पोषण कर्ता हैं। सूर्य आकाश तत्व के अधिष्ठाता हैं। आकाश में ही सब देवता अधिष्ठित हैं। अधिक विस्तार से लिखा जाए तो यह लेख वृहद रूप धारण कर लेगा। अतः  इसे संक्षेप में ही समझने का प्रयत्न करें।

 

वही ब्रह्म गणों ( देवगणों, पितृ गणों, ऋषिगणों ) आदि गणों के स्वामी  के रूप में गणेश कहलाता है। अर्थात् समस्त गणों का ईश। जब सृष्टि में कुछ भी नहीं था तब केवल जल तत्व ही विद्यमान था और जल तत्व के अधिष्ठाता गणेश जी ही हैं। इस पृथ्वी का अधिकांश हिस्सा पानी ही है। आज का विज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि पृथ्वी का ७१% हिस्सा जलीय है। क्योंकि यह पृथ्वी है ही जलीय। मानव शरीर में भी जल तत्व की मात्रा ७०% से ऊपर है। यदि हमें भोजन न मिले तो हम कुछ दिन जल पर अवलंबित रह सकते हैं। किंतु यदि हमें जल न मिले तो ? हमारी क्या स्थिति होगी ? इस पर अधिक विस्तार में नहीं जाएंगे क्योंकि लेख बहुत लंबा हो जाएगा। इसलिए अब आगे बढ़ते हैं।


वही ब्रह्म जब सृष्टि का पालन करता है तो विष्णु कहलाता है। विष्णु अर्थात् जो विश्व के अणु अणु में व्याप्त हैं । तो इस सृष्टि में विष्णु तत्व से रहित भला कौन है ? विष्णु रुपी ब्रह्म वायु तत्व के अधिष्ठाता हैं। क्या वायु तत्व के अभाव में सृष्टि में जीवन की कल्पना की जा सकती है ? समस्त प्राणियों में प्राण रुप में वायु तत्व ही तो प्रवाहमान है। वायु तत्व का एक ही गुण नहीं अपितु उसके तो अनेकों गुण हैं। आपका शरीर अन्न जल के अभाव में तो कुछ घड़ी तक क्रियाशील हो सकता है किंतु प्राणवायु{आक्सीजन) वायु तत्व} के अभाव में कुछ ही समय में आपके प्राण पखेरू उड़ जाएंगे। तो ये है वायु तत्व की महत्ता। ये हैं विष्णु रुपी ब्रह्म की महत्ता के कुछ किंचित व संक्षिप्त उदाहरण। विस्तार भय के कारण इस पर और अधिक गहराई में नहीं जाएंगे। अतः अब आगे बढ़ते हैं शिव तत्व की ओर...


वैसे शिव तत्व की संपूर्ण रुप से व्याख्या करने का सामर्थ्य तो वेद पुराण आदि नाननाविध शास्त्रों में भी नहीं है। तो मुझ अकिंचन की भला क्या बिसात है?


वह ब्रह्म तो निर्गुण, निराकार रूप से शव रुप में निष्चेष्ट पड़ा रहता है। क्योंकि उसका न तो कोई रंग है न रुप है और न ही कोई नाम। जब उस शव रुपी ब्रह्म में शक्ति का संचार होता है, जब उसे शक्ति का सहयोग मिलता है तभी वह शव से शिव में परिणत होता है। "शिवतत्व" में शिवतत्व और शक्तितत्व दोनो का अंतर्भाव होता है। परमशिव प्रकाशविमर्शमय है। इसी प्रकाशरूप को शिवतत्व और विमर्शरूप को शक्तितत्व कहते हैं। यही विश्व की सृष्टि, स्थिति और संहार के रूप में प्रकट होती है। बिना शक्ति के शिव को अपने प्रकाश रूप का ज्ञान नहीं होता। जब कालकूट नामक हलाहल विष उत्पन्न हुआ तब उसी ब्रह्म ने शिव के रूप में सृष्टि के हित के लिए हलाहल का पान किया। और जब शिव मूर्छित होने लगे तो उसी ब्रह्म ने देवी तारा का रुप धारण कर उस महाभयंकर विष को शिव के गले में ही स्तंभित कर दिया। ये एक और गूढ़ रहस्य है कि उस विष को उनके उदर में क्यों जाने नहीं दिया गया। इस पर भी कभी लिखेंगे। वही ब्रह्म रुद्र के रुप में समस्त प्रकार के दुःख दर्द, विघ्न बाधा सहित संपूर्ण जगत के संहार कर्ता हैं। वही ब्रह्म सृष्टि का अंत करने हेतु कालाग्निरुद्र का रुप धारण कर लेते हैं और संपूर्ण सृष्टि का संहार कर देते हैं। वही ब्रह्म स्थाणु और स्वयंभू अर्थात् जो स्वयं उत्पन्न हुआ हो कहलाते हैं। वही ब्रह्म सृष्टि के कल्याण कर्ता होने के कारण शंकर कहे जाते हैं। शं= कल्याण, कर= कर्ता। शिव पृथ्वी तत्व के अधिष्ठाता हैं। पृथ्वी तत्व को इतना कम में मत आंक लेना। चलिए अभी इसकी विशालता से परिचय कराते हैं। पृथ्वी तत्व का अर्थ है आवास स्थल अर्थात् रहने का स्थान। तो ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यंत तक जितने भी प्राणी हैं सबका आवास स्थल निर्धारित है। यथा ब्रह्मा जी ब्रह्म लोक में रहते हैं, विष्णु जी वैकुंठ लोक में, क्षीरसागर, विष्णु लोक में। शिव जी कैलास पर्वत अथवा शिव लोक में। इंद्रादि देवता गण स्वर्ग लोक में, असुरगण असुर लोक में, नाग पाताल लोक में, मनुष्य भूलोक में जिसे पृथ्वी लोक भी कहा जाता है। ये सब पृथ्वी तत्व ही हैं। प्राणियों के देह भी पृथ्वी तत्व ही है जिसमें जीवात्मा निवास करती है। तो अब पृथ्वी तत्व अर्थात् आत्मा के लिए रहने के लिए जब देह रुपी स्थान ही नहीं तो आप भोजन किसे दोगे ? जल किसे दोगे ? वायु का क्या करोगे ? अर्थात् पृथ्वी तत्व के अभाव में सब बेकार हो जाएगा। शिव तत्व तो अत्यंत विशाल है अतः इस पर यदि लिखा जाए तो एक ग्रंथ ही तैयार हो जाएगा। अतः इसे संक्षेप में इतना ही समझिए। तो अब आते हैं शक्ति तत्व पर...... 


शक्ति तत्व की संपूर्ण व्याख्या करने का सामर्थ्य तो ब्रह्मादि देवताओं में भी नहीं है। तो मुझ अकिंचन की भला क्या बिसात है। कुछ स्थानों में कहा गया है कि उनके बारे में केवल शिव ही पूर्ण से जानते हैं। किंतु वही शिव अन्य स्थानों पर नेति नेति कहकर चुप हो जाते हैं पूर्व में ही स्पष्ट कर दिया गया है कि जब वह ब्रह्म निर्गुण और निराकार रहता है तो वह शव रुप में निर्बल, निष्चेष्ट और निष्क्रिय रुप से पड़ा रहता है और जब उसे शक्ति का सहयोग मिलता है तभी उसमें शक्ति का संचार होता है और वह शक्तिमान कहलाता है। तब वही ब्रह्म कार्य भेद से नानाविध रुप धारण करके साकार रूप ग्रहण करता है। तो उस निष्क्रिय ब्रह्म को जिसने क्रियाशील किया, उस शव रुपी ब्रह्म को जिसने शिव बनाया जिसने उसे शक्तिमान बनाया वह शक्ति ही तो है। सूर्य रुपी ब्रह्म को जगत की रचना के लिए ,सृष्टि का पोषण करने के लिए। गणपति रुपी ब्रह्म को गणों के स्वामित्व लिए और जल रुपी जीवन प्रदान करने के लिए। विष्णु रुपी ब्रह्म को सृष्टि के पालन के लिए , सृष्टि के अणु अणु में व्याप्त होकर ऊर्जा प्रवाहित करने के लिए, वायु तत्व के रूप में समस्त प्राणियों में प्राण के संचार के लिए। शिव रुपी ब्रह्म को सृष्टि का कल्याण करने के लिए और सृष्टि का संहार करने के लिए। जिस चीज की आवश्यकता होती है वह शक्ति (Power ) ही तो है। क्या बिना शक्ति के ये कुछ भी करने में सक्षम हैं ? नहीं ना। इसीलिए शक्ति तत्व को इन सबसे परे परा तत्व कहा गया है। अर्थात् जो सबसे परे है। शक्ति तत्व के अभाव में जीवन क्या इस संपूर्ण सृष्टि की ही कल्पना नहीं की जा सकती। क्या आप भोजन बिना शक्ति के कर सकते हैं? क्या आप उस अन्न को बिना शक्ति के पचा सकते हैं? नहीं ना आपमें शक्ति है तभी आप भोजन कर पाते हो, उसे पचा पाते हो, और उससे ऊर्जा ग्रहण कर अपने नित्य के जीवन में कुछ कार्य कर पाते हो। शक्ति है तभी आप चल पाते हो, शक्ति है तभी आप उठना , बैठना, सोना, जागना, पढ़ना-लिखना आदि कार्यों को सुचारू रूप से कर पाते हो। वाणी शक्ति के कारण ही आप कुछ बोल पाते हो, मनः शक्ति के कारण ही आप कुछ सोच पाते हो, विवेक शक्ति के कारण ही आप सही ग़लत का निर्णय ले पाते हो। तर्क शक्ति के कारण ही आप हमसे तर्क और कुतर्क कर पाते हैं। वाद विवाद और बहस कर पाते हैं। यदि आपसे वह शक्ति ही छिन ली जाए तो आप कुछ नहीं कर पाओगे। वह शक्ति ही है  वह शक्ति ही है जो कुछ कार्य करने की क्षमता प्रदान करती है। वह शक्ति ही है जिसकी सहायता से आप ध्यान, , उपासना, पूजा, मंत्र साधना, योग आदि की क्रियाएं सफलतापूर्वक सुचारू रूप से कर पाते हो। वह विरोधात्मक शक्ति ही है जिसके कारण आप हमारा अथवा किसी अन्य व्यक्ति का विरोध कर पाते हैं। वह इंद्रियों की शक्ति ही है जिसके कारण आप काम, क्रोध, लोभ, मोह के वशीभूत होकर तदनुसार आचरण कर पाते हो। ‌ शक्ति के कारण ही बाकी के अन्य तत्वों का अस्तित्व है अन्यथा उनका कोई महत्व ही नहीं। क्योंकि सबके मूल में शक्ति ही विद्यमान है। शक्ति अग्नि तत्व की अधिष्ठात्री हैं। इस पर ज्यादा विस्तार मे नहीं जाएंगे।


शरीर की अग्नि यदि मंद पड़ जाए तो शरीर की क्रियाशीलता ही मंद पड़ जाती है और यदि शरीर की अग्नि बूझ जाए तो क्या होगा ? शरीर ही नष्ट हो जाएगा। एक अग्नि के जलने से शरीर नष्ट होता है। तो दूसरे अग्नि के बूझने से शरीर नष्ट होता है। यह एक अत्यंत ही गूढ़ रहस्य है। इसलिए इस पर ज्यादा चर्चा नहीं करेंगे। अग्नि तत्व के कारण ही देवताओं को हविष्य प्राप्त होता है और यज्ञ आदि धार्मिक कार्य संपन्न हो पाते हैं और शास्त्रों में कहा गया है कि यज्ञ में ही यह सृष्टि अधिष्ठित है। 

शक्ति तत्व इतना विशाल है कि इस पर लिखने में तो कई  ग्रंथ कम पड़ जाएंगे। इसलिए इस लेख को हम यहीं विराम देना चाहेंगे।


जो इसे समझ लेगा। उसे कुछ और समझने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। और उसकी भेद दृष्टि सदैव सदैव के लिए निर्मूल हो जाएगी।साभार महिपाल सिंह Raghuvanshi Facebook wall

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