तंत्र के मत में देवी की उपासना ही एक मात्र शक्ति की उपासना नहीं है गणपत्य सौर और वैष्णव शैव और शाक्त सभी शक्ति के उपासक हैं तंत्र के अनुसार पुरुष निर्गुण है और निर्गुण की उपासना नहीं होती है उपास्य देवता पुरुष होने पर ही वास्तव में वहां भी उसकी शक्ति की ही उपासना होती है शक्ति ही हमारे ज्ञान का विषय होती है शक्तिमान या पुरुष ज्ञान अतीत सत्ता मात्र है वह किसी भी समय किसी के बोध का विषय नहीं होता।
वेद वे तंत्र में ब्रह्म को सच्चिदानंद कहा गया है इसमें सत् अंश पुरुष या निर्गुणभाव तथा चित् और आनन्दांश गुणयुक्त भाव अर्थात है एवं इस प्रकृति के द्वारा ही पुरुषों का परिचय प्राप्त होता है सांख्यदर्शन भी पुरुष और प्रकृति में का ही विचार करता है आप संख्य के मत में दुख के ही अत्यंत विनाश को ही मुक्ति कहते हैं। सुख दुःखादि बुद्धादि के स्वभाव हैं।
स्वभाव किसी प्रकार नष्ट नहीं हो सकता अतः बुद्धि के अतिरिक्त किसी सत्ता को स्वीकार न करने के दुख आदि से मुक्ति लाभ करना असंभव है इसलिए बुद्धि के अतिरिक्त सुख दुख आदि रोहित एक अतिरिक्त वस्तु या आत्मा को स्वीकार करना पड़ता है यह आत्मा ही दुख सुख आदि रहित निर्गुण पुरुष है बुद्धयादि के सुख दुखआदि धर्मपुरूष पर आरोपित होते हैं।
इस आरोपित सुख-दुख आदि धर्म के अवगत होने पर ही मुक्ति लाभ होता है बुद्धि आदि अचेतन पदार्थ हैं चेतन के सानिध्य से इनकी प्रवृत्ति देखने में आती है यह अधिष्ठाता ही पुरूष बुद्धयादि समस्त जड़ पदार्थ योग्य पदार्थ हैं इनका भूख था कि बिना भोग्य सिद्ध नहीं होता है भोग्य पदार्थ मात्र का अनुभव होता है और जो अनुभव कराता है या भोग करता है वही पुरुष है।
परंतु शक्ति का इस प्रकार प्रत्यक्ष दर्शन बड़े भाग्य से ही जीव कर सकता है हम जो सम्मोहित होकर शुद्ध चैतन्य को भूल गए किसी से शौकार्त्त जीवो का हाहाकार आज जगत को विदीर्ण कर रहा है चैतन्य में लक्ष्य न होने के कारण ही प्राण स्पंदित होकर मन को से सचंचल कर रहे हैं और मन का यह चांचल्यविक्षेप आज समस्त जगत को नृत्यशीला बालिका के समान बोध होता है इस चित् स्वरूप में लक्ष्य रखने से ही हम स्थिर होकर निविष्ट चित् से उस चिन्मयी माता को स्पर्श कर सकेंगे इसलिए आज सब काम छोड़कर हमको उसे प्रसन्न करने के लिए कार्य में लगना चाहिए।
श्रणु देवि महाभागे तवाराधनकारणम् । तव साधनतो येन ब्रह्म सायुज्यमश्नुते।।
त्वं परा प्रकृतिः साक्षाद् ब्रह्मण परमात्मनः। त्वत्तो जातं जगत्सर्व त्वं जगज्जनी शिवे ।।
अर्थात हे देवि तुम्हारी आराधना क्यों करनी चाहिए तथा तुम्हारी आराधना के द्वारा ब्रह्मसायुज्स क्यों प्राप्त होता है इसका कारण सुनो साक्षात ब्रह्म या परमात्मा की तुम ही परा प्रकृति हो अतः केवल तुम्हारे ही साथ उसका साक्षात और नित्य संबंध है हे देवी तुमसे ही ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ है अतः तुम ही अखिल विश्व की एकमात्र जननी हो।
यदि दोनों की उपासना एक ही है तो विभिन्न प्रणाली क्यों प्रचलित हुई जो कुछ सूक्ष्म स्थूल है सभी तो ब्रह्म और प्रकृति विशिष्ट है अब सब कुछ ब्रह्म शरीर है ब्रह्म नाम से जो पहले निर्गुण निराकार था उसे मां संबोधन करते ही मानो वह इंद्रिय बोधगम्य में होने लगा क्रमशः यह समझ में आने लगा कि जो स्थुल है वही सूक्ष्म है तथा जो सूक्ष्म है वही स्थुल है जो निराकार और इंद्रियों के लिए अगम्य है था वही साकार और इंद्रिय ज्ञान का विषय बन गया जो वाष्पाकार था।
वह घन होकर जन और अन्त मैं तुषाराकार हो गया परंतु इस साकार और निराकार में तत्वतः कुछ भी भेद नहीं है हम सोचते हैं कि वह इन नेत्रों से नहीं देख सकता परंतु इस विश्वरूप में हमें किसी की मूर्ति दिखती है क्या इस रूप में कोई दूसरा है क्या यह वही नहीं है इसे स्थुलरूप में भी वही है। जिसकी इन नेत्रों से धूल मिट्टी समझकर हम अपेक्षा करते हैं एक बार प्राण की जीभ से उसका आशीर्वाद ग्रहण करके देखें तो सही हमें इन धूल के कणों में उसी का दिव्य रूप में सुशोभित दिखेगा। sabhar Facebook sakti upasak agyani
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