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मन्त्र विज्ञान अजपा गायत्री और विकार मुक्ति

 



तीन तल हुए—एक वाणी में प्रकट हो,
एक विचार में प्रकट हो, 
एक विचार के नीचे अचेतन में हो।
 ऋषि कहते हैं, उसके नीचे भी एक तल है। अचेतन में भी होता है, तो भी उसमें आकृति और रूप होता है। 
उसके भी नीचे एक तल है, महाअचेतन का कहें, जहां उसमें रूप और आकृति भी नहीं होती। वह अरूप होता है। जैसे एक बादल आकाश में भटक रहा है। अभी वर्षा नहीं हुई। ऐसा एक कोई अज्ञात तल पर भीतर कोई संभावित,पोटेंशियल विचार घूम रहा है । 
वह अचेतन में आकर अंकुरित होगा, 
चेतन में आकर प्रकट होगा, 
वाणी में आकर अभिव्यक्त हो जाएगा। ऐसे चार तल हैं।

गायत्री उस तल पर उपयोग की है जो पहला तल है, सबसे नीचे। उस तल पर "अजपा"  का प्रवेश है। 
तो जप का नियम है। अगर कोई भी जप शुरू करें—समझें कि राम—राम जप शुरू करते हैं, या ओम, कोई भी जप शुरू करते हैं; या अल्लाह, कोई भी जप शुरू करते है—तो पहले उसे वाणी से शुरू करें। पहले कहें, राम, राम; जोर से कहें। फिर जब यह इतना सहज हो जाए कि करना न पड़े और होने लगे, इसमें कोई एफर्ट न रह जाए पीछे, प्रयत्न न रह जाए,यह होने लगे; जैसे श्वास चलती है, ऐसा हो जाए कि राम, राम चलता ही रहे, तो फिर ओंठ बंद कर लें।
 फिर उसको भीतर चलने दें। फिर मुख से न बोलें राम, राम; मन मे चलने दे राम, राम।

फिर इतना इसका अभ्यास हो जाए कि उसमें भी प्रयत्न न करना पड़े, तब इसे वहां से भी छोड़ दें, तब यह और नीचे 'डूब जाएगा। 
और अचेतन में चलने लगेगा—राम,राम। आपको भी पता न चलेगा कि चल रहा है, और चलता रहेगा। फिर वहां से भी गिरा दिए जाने की विधियां हैं और तब वह अजपा में गिर जाता है। फिर वहां राम, राम भी नहीं चलता। फिर राम का भाव ही रह जाता है—जस्ट क्लाउडी, एक बादल की तरह छा जाता है। जैसे पहाड़ पर कभी बादल बैठ जाता है धुआ—धुआ, ऐसा भीतर प्राणों के गहरे में अरूप छा जाता है।

उसको कहा है ऋषि ने, अजपा। 
और जब अजपा हो जाए कोई मंत्र, तब वह गायत्री बन गया। अन्यथा वह गायत्री नहीं है।

और क्या है इस अजपा का उपयोग ???
इस अजपा से सिद्ध क्या होगा ??? इससे सिद्ध होगा, विकार— मुक्ति। 
विकारदंडो ध्येय: इस अजपा का लक्ष्य है विकार से मुक्ति।

यह बहुत अदभुत कीमिया है, केमेस्ट्री है इसकी। 
मंत्र शास्त्र का अपना पूरा रसायन है। 
मंत्र शास्त्र यह कहता है कि अगर कोई भी मंत्र का उपयोग अजपा तक चला जाए,तो आपके चित्त से कामवासना क्षीण हो जाएगी, सब विकार गिर जाएंगे। क्योंकि जो व्यक्ति अपने अंतिम अचेतन तल तक पहुंचने में समर्थ हो गया, उसको फिर कोई चीज विकारग्रस्त नहीं कर सकती। क्योंकि सब विकार ऊपर—ऊपर हैं, भीतर तो निर्विकार बैठा हुआ है। हमें उसका पता नहीं है,इसलिए हम विकार से उलझे रहते हैं।

कोई भी मंत्र गायत्री बन जाता है,जब अजपा हो जाए। यही इस सूत्र का अर्थ है अजपागायत्री विकारदंडो ध्येय:।

मन का निरोध ही उनकी झोली है।

वे जो संन्यासी हैं, उनके कंधे पर एक ही बात टंगी हुई है चौबीस घंटे—मन का निरोध, मन से मुक्ति, मन के पार हो जाना। चौबीस घंटे उनके कंधे पर है।

आपने एक शब्द सुना होगा,खानाबदोश। यह बहुत बढ़िया शब्द है। इसका मतलब होता है, जिनका मकान अपने कंधे पर है। खाना—बदोश। खाना का मतलब होता है मकान—दवाखाना—खाना यानी मकान। दोश का मतलब होता है कंधा,बदोश का मतलब होता है, कंधे के ऊपर। जो अपने कंधे पर ही अपना मकान लिए हुए हैं, उनको खानाबदोश कहते हैं—घूमक्कडू लोग, जिनका कोई मकान नहीं है, कंधे पर ही मकान है।

संन्यासी भी अपने कंधे पर एक चीज ही लिए चलता है चौबीस घंटे—मन का निरोध। वही उसकी धारा है सतत श्वास—श्वास की, मन के पार कैसे जाऊं ??? क्योंकि मनातीत है सत्य। मन के पार कैसे जाऊं ???
क्योंकि मनातीत है अमृत। मन के पार कैसे जाऊं ??? 
क्योंकि मनातीत है प्रभु।

जाया जा सकता है। ध्यान उसका मार्ग है। sabhar dev sharma Facebook wall

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