जीव शरीर में कहां रहता है ? कहाँ उत्पन्न होता है ? मृत्यु के अनन्तर कहाँ रहता है ? जाकर कहाँ ठहरता है ?
"शिव-गीता" में श्रीराम जी के इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए भगवान् शंकर कहते हैं ------
"राम ! मैं सत्य-ज्ञानस्वरूप , अनन्त-परमानन्दस्वरूप हूँ ।
व्यक्त - अव्यक्त का कारण , नित्य - विशुद्ध - सर्वात्मा - निर्लेप - सर्वधर्म रहित - मन से अग्राह्य हूँ , किन्तु ऐसा होने पर भी अविद्या अथवा अन्तःकरण से मिलकर शरीर में रहता हूँ ।
५ कर्मेन्द्रियां , ५ ज्ञानेन्द्रियां तथा अन्तःकरण चतुष्टय से मिलकर मैं जीव-भाव को प्राप्त हुआ हूँ ।
मैं अत्यन्त निर्मल होने पर भी मलिन रूप से प्रतीत होता हूं , जिस प्रकार दर्पण मलिन होने पर मुख भी मलिन दिखता है , उसी प्रकार अन्तःकरण रूपी दर्पण में मलिनता के कारण आत्मा मलिन प्रतीत होता है ।
वह शरीर में कहां रहती है ? इसको कहता हूं ---
सुनो ! हृदयरूपी कमल में एक अधोमुखी सूक्ष्म छिद्र है , उसके दहराकाश में , यानी ह्रदय में स्थित आकाश में ।
अब सगुण - ब्रह्म के उपासकों के क्रममुक्ति तथा नाड़ियों के विस्तार को बताते हुए शंकर जी कहते हैं ----
कदम्ब - पुष्प में विद्यमान केसर के समान नाड़ियां हृदय से निकल कर सारे शरीर में फैली है , इन नाड़ियों में से अत्यन्त सूक्ष्मतम हिता नाम की नाड़ी है ।
योगियों ने बहत्तर हजार नाड़ियां बताई है , वे सब नाड़ियां हृदय - कमल से निकल कर वैसे ही फैलता है , जैसे सूर्यमण्डल से निकली सूर्य की किरणें फैलती है ।
इनमें १०१ मुख्य नाड़ियां हैं ।
जैसे नदियों में जल भरा रहता है , वैसे ही इन नाड़ियों में कर्मफल रूपी जल भरा रहता है , इनमें से एक नाड़ी सीधी ब्रह्मरन्ध्र तक गई है ।
प्रत्येक इन्द्रिय से १० - १० नाड़ियां निकल कर विषयोन्मुखी होती हैं , ये नाड़ियां आनन्द-प्राप्ति का कारण है तथा स्वप्न आदि का फल भोगने के लिए है ।
उनमें से एक सुषुम्ना नाम की नाड़ी है , उसमें चित्तवृत्ति को समाहित करने वाला योगी मुक्ति प्राप्त करता है , दोनों की उपाधि से युक्त चैतन्य को विद्वान् जीव कहते हैं ।
अब यहां शंका होती है कि यदि सुषुम्ना के निर्गमन से ही मोक्ष होता है तो ज्ञान से मुक्ति का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियां तथा स्मृतियां निरर्थक हो जाएंगी , क्योंकि "ज्ञानादेव कैवल्यम् प्राप्यते येन मुच्यते" अर्थात् ज्ञान से ही कैवल्य मुक्ति प्राप्त होती है , जिससे जीव का जन्म - मरण का बन्धन टूट जाता है ।
तो इसका उत्तर देते हुए कहा है कि कामादि दोष से रहित अन्तःकरण ही ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ है ।
जीव - दशा में मुक्ति नहीं होती , किन्तु सुषुम्ना के ब्रह्मरन्ध्र में कुण्डलिनी के जाग्रत होने से जीव को ब्रह्मादि लोकों की प्राप्ति (गौण-मुक्ति) होती है , मुख्य कैवल्य मुक्ति नहीं , अतः ज्ञान से मुक्ति का प्रतिपादन करने वाली श्रुति-स्मृति से विरोध नहीं है ।
जैसे अदृश्य होने पर भी सूर्य-चन्द्र-ग्रहण पर राहु का दर्शन होता है , प्रथम नहीं ; वैसे सवव्यापी आत्मा होने पर भी सूक्ष्म-शरीर में दिखता है ।
जैसे घट-दर्शन से घटाकाश का दर्शन होता है तथा घट को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने से घटाकाश जाता हुआ प्रतीत होता है , वैसे ही सूक्ष्म शरीर के चले जाने पर आत्मा जाता हुआ प्रतीत होता है ।
इस विषय को समझने के लिए वेदान्त की प्रक्रिया समझ लेनी चाहिए , एक चैतन्य के होने पर भी उपाधि भेद से चैतन्य अनेक है , किन्तु प्रधान रूप से तीन प्रकार का है ------
१ -- प्रमाता-चैतन्य == "प्रकर्षेण ज्ञाता इति प्रमाता" -- अर्थात् अन्तःकरण से मिला चैतन्य , जानने वाला चैतन्य प्रमाता-चैतन्य है ।
२ -- प्रमाण-चैतन्य == अन्तःकरण की वृत्ति में विद्यमान चैतन्य प्रमाण-चैतन्य है ।
३ -- विषय-चैतन्य == अन्तःकरण से निकल कर आंखादि इन्द्रियों से मिलकर जब चैतन्य जिस इन्द्रिय से सबन्धित होकर देखता है , सुनता है --- इन्द्रियों से निकल कर विषयों तक पहुँचने वाली अन्तःकरण की वृत्ति विषय-चैतन्य है ।
जब समान देश-काल में वृत्यवछिन्न चैतन्येन्द्रियों द्वारा विषय के पास जाकर विषय को व्याप्त करके चैतन्याकार होते हैं , तब घटादि पदार्थों का ज्ञान होता है --- इस प्रकार वेदान्त की प्रक्रिया है ।
प्रमाण अनेकों है == प्रत्यक्ष - अनुमान - अर्थापत्ति आदि
इनमें अनुमान प्रमाण से जैसे पर्वत पर धुआं देखकर अनुमान होता है कि वहाँ अग्नि है ।
"धूमत्वात्" -- धूम-युक्त होने से , जहां-जहां धुआं है , वहां-वहां आग है ।
जैसे स्वप्न का जगत् मिथ्या होने पर भी प्रतीत होता है , ऐसे ही जाग्रत भी तुरीया में मिथ्या प्रतीत होता है , स्वप्न का जगत् स्वप्न व स्वप्न के साक्षी तैजस का वासना मात्र है ।
जिस प्रकार दिन का थका हुआ पक्षी रात्रि में अपने पंखों को समेट कर विश्राम करता है , उसी प्रकार जाग्रत में तथा स्वप्न में थका हुआ जीव-रूपी पक्षी भी अपनी वृत्ति रूपी पंखों को समेट कर सुषुप्ति में विश्राम करता है ।
गाढ़ - सुषुप्ति अविद्या की वृत्ति से होती है , उसमें अनुभव करता है ---- "मैं सुख से सोया था , कुछ भी नही जाना ।"
राम ! स्वयंप्रकाश देहातीत आत्मा का स्वरूप मैंने तुम्हारे सामने कहा , वह तीन गुण , तीनों शरीरों से परे , शुद्ध सच्चिदानंद स्वरूप है , वही हम दोनों में अभेद रूप से है ।
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