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-व्यक्त और अव्यक्त चेतना क्या है

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परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन 

-------: मनुष्य को व्यक्ति की संज्ञा क्यों दी गयी है ?:--------
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      व्यक्त चेतना वह चेतना है जो किसी वस्तु, किसी पदार्थ या किसी अन्य साधन द्वारा व्यक्त (प्रकट) हो गयी हो। हमें मालूम होना चाहिए कि मानव पिण्ड में चेतना की सबसे अधिक अभिव्यक्ति (प्रकटीकरण)  होने के कारण ही मनुष्य को 'व्यक्ति' कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिसमें चेतना की अभिव्यक्ति सर्वाधिक है, वह मनुष्य ही 'व्यक्ति' कहलाता है।
       अव्यक्त चेतना उसे कहते हैं, जो निराकार है, जो अनुभव के परे है और जो किसी वस्तु, पदार्थ या किसी अन्य साधन के द्वारा व्यक्त नहीं हुई हो।
        वैज्ञानिक 'चेतना' के प्रश्न पर काफी लम्बे समय से अनुसन्धान करते आ रहे हैं और वे इस निष्कर्ष पर आ पहुंचे हैं कि हजारों साल पूर्व हमारे ऋषियों और मुनियों की तपस्या के परिणामस्वरूप जो निष्कर्ष सामने आये, वे असत्य नहीं हैं। वही धर्म की श्रेणी में रखे गए हैं। धर्म की दृष्टि में जो 'पराचेतना' है, वह सत्य है। मनुष्य का जाग्रत 'मन' उस 'विराट मन' का एक छोटा-सा हिस्सा है जिसका एक बड़ा अंश एक रहस्यमय आवरण में बराबर छिपा रहता है। वैज्ञानिकों ने उसी को 'परामन', 'अचेतन मन', 'उपचेतन मन' और 'पैरासाईकिक तत्व'  कहा है।
      आज का जन-मानस जो पाश्चात्य संस्कृति से और उपभोक्तावादी संस्कृति से बहुत गहराई से प्रभावित है, वह तबतक किसी आध्यात्मिक तथ्य को मानने के लिए तैयार नहीं होता जबतक कि उसे उन तथ्यों को वैज्ञानिक आधार पर न समझाया जाय।
       विज्ञान की दृष्टि में जगत् मानव से निरपेक्ष है .और मानव जगत् से। ऐसा मानने पर दोनों अपने-अपने स्थान पर निरर्थक हो जाते हैं। लेकिन आधुनिक युग में वैज्ञानिक जीवन और जगत् में अर्थ खोजना चाहते हैं। पर उनकी कठिनाई यह है कि इस दिशा में कदम बढ़ाते ही वे अपने आपको एक ऐसे क्षेत्र में पाते हैं, जहाँ उनके सभी वैज्ञानिक उपकरणों, सभी साधनों और सभी प्रयोगों की सीमा समाप्त हो जाती है और फिर उन्हें अपनी सीमाओं और फिर विराट के समक्ष अपने को असहाय होने का आभास हो जाता है। क्षुद्र है व्यक्ति का वैज्ञानिक ज्ञान, प्रयोग और प्रयत्न उस परम सत्ता के सामने।
      आधुनिक विज्ञान की एक सीमा तो यही है कि अभी तक पदार्थ की मूल इकाई 'इलेक्ट्रॉन' के विश्लेषण में वह नितान्त असमर्थ रहा है। वैज्ञानिक इलेक्ट्रॉन की मात्र कल्पना ही कर सकते हैं। उसे देखने के लिए उनके पास कोई किसी प्रकार न तो यंत्र है और न है कोई विधि ही। उनकी दृष्टि में इलेक्ट्रॉन उसी प्रकार रूपहीन है जैसे धर्म और अध्यात्म की दृष्टि में 'ब्रह्म' रूपहीन है। पदार्थ की ही भौतिक सत्ता को सर्वोपरि मानने वाले वैज्ञानिकों को जब पदार्थ की मूल इकाई इलेक्ट्रॉन की गतिविधि में किसी कार्य-कारण सम्बन्ध में सफलता नहीं मिली तो उन्हें यह स्वीकार करने को विवश होना पड़ा कि भौतिक सत्ता के परे शायद एक अभौतिक सत्ता भी है--एक शान्त, नीरव और चैतन्य सत्ता जिसमें प्रवेश कर् उन्हें उन उच्चतम वैज्ञानिक सत्यों का साक्षात्कार हो सकता है जो भौतिक और चेतना के स्तर पर नहीं हो पाया था। वह अभौतिक सत्ता बाह्य जगत् में नहीं, बल्कि स्वयम् मानव मन में है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यही क्षेत्र है परामनोविज्ञान का जिसकी ओर विज्ञान के कदम ठिठकते-झिझकते धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं।
      मनुष्य को मन के बारे में कुछ समय पहले तक कुछ भी नहीं मालूम था। मगर जब आधुनिक मनोविज्ञान का आविर्भाव हुआ, तभी वैज्ञानिकों को इस बात का पता चला कि मन के दो रूप हैं--चेतन और अचेतन। अचेतन, जो मन का दो तिहाई भाग् है, की क्रिया-कलापों से मनुष्य सर्वथा अपरिचित और अनभिज्ञ ही रहता है। परामनोविज्ञान का गहराई से अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिकों को ज्ञात हुआ कि अचेतन मन में विश्वास से परे 'अकल्पनीय शक्तियां' भरी पड़ी हैं जिनका अनुमान लगाना अत्यन्त कठिन है। वे शक्तियां जब कभी अचेतन मन की सीमा लांघकर चेतन मन में प्रवेश करती हैं तो उनके अविश्वनीय कौतुक लोगों को एकबारगी हतप्रभ कर देते हैं। ऐसे ही कौतुक को हम 'दैवीय चमत्कार' कह देते हैं। लेकिन वे होती हैं अचेतन मन की असाधारण क्रियाएं ही जिन्हें समझने में हम लोग अभी असमर्थ हैं।

Shiv Ram Tiwari

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