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मार्च, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

योग के दृष्टि से आयु पे नियंत्रण

अब योग के दृष्टि से आयु पे नियंत्रण की मनोवैज्ञानिक अथवा आध्यात्मिक प्रभाव एवं स्तर को जान अथवा समझ लेना अवयशक हैं देखो उम्र और स्वाँस का वही सम्बंध होता हैं जो किसी गाड़ी और इधन की होती हैं जैसे जैसे गाड़ी की इधन जहाँ जाकर समाप्त हो जाती हैं वहीं उसका विराम लग जाता फिर चाह कर भी वहाँ से आगे अपनी गाड़ी को नहीं लेकर जा सकता चाहे उसका गंतव्य स्थान आए या नहीं आए और एक बात ये भी हैं की इस शरीर रूपी गाड़ी को प्राणी बिना मतलब इधर उधर चलाते जा रहा हैं उसपे ब्रेक लगाने की कला ही उसे मालूम नहीं हैं जब उसका कोई कार्य नहीं हैं अथवा बिना रास्ते का खबर रहे वो निरंतर अनजान और ग़लत दिशा में भागे जा रहा हैं और जब तक गाड़ी भाग रही हैं चाहे वो किसी भी दिशा में भागे इधन तो कम तटपश्चात समाप्त होगी ही ना उसे क्या मतलब की तुम किस दिशा में जा रहे हो सही दिशा में या ग़लत दिशा में । दूसरा पहलू योग के दृष्टि में जीवन क्या हैं स्वाँस और प्रस्वाँस की क्रिया का निरंतर जारी रहना ही जीवन हैं योग की मतअनुसार परंतु जिस साधक को इस स्वाँस और प्रस्वाँस की क्रिया को विराम देने की ठहराने की कला मालूम हैं उसका स

:मनुष्य इस विश्व ब्रह्माण्ड की अद्भुत कृति

पूज्य ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन       इस विश्वब्रह्माण्ड के कण-कण में नैसर्गिक शक्तियों का विपुल भण्डार भरा हुआ है। ये नैसर्गिक शक्तियां ऊर्जा के रूप में परिवर्तित होकर सर्वप्रथम ग्रह-नक्षत्रों की ऊर्जाओं में परिवर्तित होती हैं और उनके द्वारा मनुष्य के विभिन्न अंगों से अपना सम्बन्ध स्थापित करती हैं। इसके पश्चात पंचतत्वों का आश्रय लेकर विभिन्न पदार्थों का निर्माण करती हैं। हमें ज्ञात होना चाहिए कि सूर्य से निःसृत उष्ण ऊर्जा ही वास्तव में वह नैसर्गिक शक्ति है। हम-आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि केवल दस एकड़ भूमि पर सूर्य की जो उष्ण ऊर्जा दिन के समय बिखरी हुई होती है, उसकी शक्ति से पूरे विश्व के कल-कारखाने और मशीनों को पूरे एक महीने तक चलाया जा सकता है। लेकिन यह सम्भव कैसे है ?       सूर्य की उसी उष्ण ऊर्जा का दूसरा नाम 'सौर ऊर्जा' है जो ज्योतिर्विज्ञान की मूलभित्ति है। ज्योतिर्विज्ञान के अन्तर्गत छः विज्ञान हैं--नक्षत्रविज्ञान, राशिविज्ञान, क्षणविज्ञान, कालविज्ञान, चंद्रविज्ञान और सूर्यविज्ञान।       इस नैसर्गिक ऊर्जा का एक विशिष्ट क्षे

सृष्टि और प्रलय

{{{ॐ}}}                                                                   # इस समस्त जड़ चेतनात्मक जगत का एक  मात्र निमित्त एवं उपादान कारण वह परब्रह्म ही है यही वह मूल तत्व है जिससे सृष्टि कि रचना होती है उसी से संचालित होती है तथा प्रलय काल मे उसी मे विलीन हो जाती है यह सृष्टि उसी सी अभिव्यक्ति है जो ब्रह्म से भिन्न नही है यह जड प्रकृति सृष्टि या कारण नही है प्रलय काल मे वह सबको अपने मे विलीन  करने ये कारण ही उसे भोक्ता कहा गया है कल्प ये आरम्भ मे सृष्टि सी रचना उसी प्रकार होती है जैसी पूर्व कल्प मे हुई थी वेद भी नित्य है प्रत्येक कल्प मे इनकी नई रचना नही होती है हर कल्प मे उसी नाम रूप और ऐश्वर्य वाले देवता उत्पन्न होते है किन्तु उनके जीव बदल जाते है इसलिए वे नित्य है तथा जन्म मरण से मुक्त है जगत के कारण के समाधान ये लिए वेदानुकुल स्मृतियाँ सी प्रमाण है सांख्य और योग दर्शन वेदानुकुल नही होने से प्रमाण नही है जिस प्रकार बीज मे सम्पूर्ण वृक्ष सी सत्ता विधमान है उसी प्रकार यह जगत अप्रकट रूप से शक्ति रूप से ब्रह्म मे विधमान है प्रलय काल मे भी यह शक्ति रूप से उस परब्रह्म मे वि

अचेतन में प्रवेश

 -  स्वप्न देखते हुए जागने की पहली विधि -  एक तो यह कि तुम यह मानकर अपना कामकाज, अपना व्यवहार शुरू करो कि सारा संसार स्वप्‍नवत है। तुम जो भी करो, यह याद रखो कि यह सपना है। जब जागे हुए हो तो निरंतर याद रखो कि सब कुछ सपना है। अगर तुम स्वप्न देखते हुए स्मरण रखना चाहते हो कि यह स्वप्न है तो तुम्हें जागते हुए ही उसका आरंभ करना होगा। अभी तो ऐसा है कि स्वप्न देखते हुए तुम नहीं याद रख सकते कि यह स्‍वप्‍न है। तुम तो सोचते हो कि यह यथार्थ ही है। क्यों तुम सोचते हो कि यह यथार्थ है? क्योंकि दिनभर तो तुम यही समझते हो कि सब कुछ यथार्थ है। वह तुम्हारी दृष्टि बन गई है —बंधी—बंधाई दृष्टि। जागते हुए तुमने स्नान किया, वह यथार्थ था। जागते हुए तुम भोजन कर रहे थे, वह यथार्थ था। जागते हुए तुम बातचीत कर रहे थे, वह भी यथार्थ था। पूरे दिन और इसी तरह पूरी जिंदगी, तुम जो भी सोचते हो, करते हो, उस पर तुम्हारी दृष्टि उसके यथार्थ होने की रहती है। यह दृष्टि फिक्स हो जाती है, यह मन की बंधी—बंधाई धारणा बन जाती है। फिर रात में जब तुम स्‍वप्‍न देखते हो तो वही दृष्टि काम करती है कि यह यथार्थ है। इसलिए पहले तो हम विश्लेषण क

तन्त्र शक्ति युद्ध

एक समय पर तन्त्र का बहुत सम्मान होता था, तन्त्र द्वारा असम्भव कार्य को भी सम्भव कर लिया जाता था। उस समय पर जो युद्ध होते थे वो तन्त्र द्वारा लड़े जाते थे। जो श्री राम रावण का युद्ध हुआ, महाभारत युद्ध हुआ ये सब तन्त्र शक्ति द्वारा ही लड़े गए थे। जो अस्त्र शस्त्र थे वो तन्त्र शक्ति से चलते थे, रावण का वाहन तन्त्र शक्ति द्वारा ही उड़ता था, मारीच तन्त्र शक्ति द्वारा ही कोई भी रूप धारण कर सकता था, नल नील ने जल को बांधकर पुल बना दिया था, कितने ही दानव थे जो तन्त्र शक्तियो में पारंगत थे। अगर हम कहे कि रावण, श्रीराम जी आदि उच्च कोटि के साधक थे तो लोगो को अच्छा नही लगेगा क्योकि तन्त्र को हीन दृष्टि से देखते है। तन्त्र साधनाओ द्वारा सबने अलग अलग प्रकार की दिव्य शक्तिया प्राप्त की हुई थी।  ऐसे ही महाभारत का युद्ध लड़ा गया था, यदि सभी चीजो को ध्यान से देखो तो ये सब समझ आएगा लेकिन हम सिर्फ सोचते है कि वो बस शक्तिशाली था लेकिन कभी ये नही सोचते कि इतना शक्तिशाली बना कैसे, ये एक साधना होती है कि किसी का श्राप फलित हो जाये। लेकिन जब बाहरी लोग आए तो यहा की शिक्षा पद्ति को देखा तो घबरा गए कि इनसे जीतना सम्भव

ऊर्जाओं का रहस्य

इस सृष्टि के संचालन में सकारात्मक और नकारात्मक दोनो ऊर्जाओं का सहयोग है। सभी जीवो में दोनो प्रकार की ऊर्जा होती है। जब मनुष्य क्रोध करता है तो उसमे नकारात्मक ऊर्जा बढ़ जाती है इसी कारण सही गलत देख नही पाता और जो मनुष्य शुद्ध विचार और क्रोध ना करने वाला होगा उसमे सकारात्मक ऊर्जा की अधिकता होगी उसके पास जाने से ही शांति का अनुभव होगा जैसे हमारे साधु संत होते है।  आप एक संत से कहो कि किसी की हत्या करदे तो वो नही करेगा चाहे आप उसे कुछ भी दे दे, लेकिन वही एक क्रोधित व्यक्ति को उनकी पसंद की वस्तु दे दो वो आपका कार्य तुरंत कर देगा। जब सृष्टि में अधर्म ( नकारात्मकता) बढ़ता है तो उसे संतुलन में लाने के लिए सकारात्मक शक्ति को नकारात्मक स्वरूप धारण करना पड़ता है। क्योकि नकारात्मक ऊर्जा की प्रवर्ति संहारक,हिंसात्मक होती है।  जब प्रभु को ऐसे स्वरूप धारण करने पड़ते है तो  सकारात्मकता को भी उसे नियंत्रित करना पड़ता है। जैसे महाकाली ने दानवों के बाद देवो को मारना आरम्भ कर दिया था तब महादेव के सकारात्मक शिव स्वरूप महाकाली के चरणों मे आकर नकारात्मक ऊर्जा को  नियंत्रित किया था।  नरसिंह भगवान ने हिरण्यकश्यपु क

क्रोध की उर्जा का रूपांतरण

जब कभी तुम्हें यह पता चले कि तुम्हें क्रोध आ रहा है तो इसे सतत अभ्यास बना लो कि क्रोध में प्रवेश करने के पहले तुम पांच गहरी सांसें लो। यह एक सीधा—सरल अभ्यास है। स्‍पष्टतया क्रोध से बिलकुल संबंधित नहीं है और कोई इस पर हंस भी सकता है कि इससे मदद कैसे मिलने वाली है? लेकिन इससे मदद मिलने वाली है। इसलिए जब कभी तुम्हें अनुभव हो कि क्रोध आ रहा है तो इसे व्यक्त करने के पहले पांच गहरी सांस अंदर खींचो और बाहर छोड़ो। क्या होगा इससे? इससे बहुत सारी चीजें हो पायेंगी। क्रोध केवल तभी हो सकता है अगर तुम होश नहीं रखते। और यह श्वसन एक सचेत प्रयास है। बस, क्रोध व्यक्त करने से पहले जरा होशपूर्ण ढंग से पांच बार अंदर—बाहर सांस लेना। यह तुम्हारे मन को जागरूक बना देगा। और जागरूकता के साथ क्रोध प्रवेश नहीं कर सकता। और यह केवल तुम्हारे मन को ही जागरूक नहीं बनायेगा, यह तुम्हारे शरीर को भी जागरूक बना देगा, क्योंकि शरीर में ज्यादा ऑक्सीजन हो तो शरीर ज्यादा जागरूक होता है। जागरूकता की इस घड़ी में,अचानक तुम पाओगे कि क्रोध विलीन हो गया है। दूसरी बात, तुम्हारा मन केवल एक—विषयी हो सकता है। मन दो बातें साथ—साथ

अपने अवचेतन मन को आदेश दीजिए ! “वो कहेगा जो हुक्म मेरे आका” !

******************************************* 1 / 8 हम अपनी हर समस्या का समाधान औरों में ही क्यों ढूंढते हैं ? हम क्यों ये चाहते हैं कि मेरी समस्या का हल कोई दूसरा बता दे ? या हम किसी ऐसे महापुरुष की खोज में ही रहते हैं जो हमें हमारी जिंदगी का सही किनारा दिखा दे। खैर, अगर दूसरों से बात करने पर आपको अपनी समस्या का समाधान मिल जाता है तो अच्छा है लेकिन यहां ज़रा सोचने वाली बात ये है कि औरों से बात करने से पहले क्या आपने अपने भीतर उपस्थित अपने अवचेतन मन से बात करने की कोशिश की ? जी हां जिस महापुरुष की खोज में हम बाहरी दुनियां में भटक रहे हैं असल में एक ऐसी महाशक्ति हमारे भीतर ही स्थित है जो सर्वशक्तिमान है, और एक निश्चित समय पर वो जागृत होती है। हमारा मन दो प्रकार का होता है। पहला चेतन व दूसरा अवचेतन। चेतन मन के द्वारा हम जाग्रत अवस्था में सोचते हैं और बाहरी दुनिया का अनुभव प्राप्त करते हैं। अवचेतन मन इन्हीं सब बातों को ग्रहण कर सुरक्षित रख लेता है और उसे पूरा करने में जुट जाता है। 2 / 8 डॉ जोसेफ मर्फी की रिसर्च क्या कहती है ? मनोवैज्ञानिक डॉ. जोसेफ मर्फी ने एक शोध से पता लगाया थ

तत्त्वासार

{{{ॐ}}}                                                             #  वास्तव मे सृष्टि मे एक ब्रह्म की ही सत्ता है जो विभिन्न रूपों मे अभिव्यक्त हुआ है । इसलिए सभी रूप उससे भिन्न नही है बल्कि भ्रम के कारण आत्मज्ञान के अभाव के कारण ये भिन्न भिन्न प्रतीत होते है । इसी प्रकार शरीर भी भ्रम वश उससे भिन्न प्रतीत होता है तथा जिस भ्रम के कारण प्रतीत होने वाले की सत्ता नही होती ,जिस भ्रम से रस्सी मे सर्प दिखाई देता है किन्तु उसमे सर्प की सत्ता नही होती ,वह रस्सी ही है ।इसी प्रकार शरीर भी भ्रम मात्र ही है । जिनको ऐसी शंका होती है कि यदि ज्ञान से अज्ञान का मूल सहित नाश हो जाता है, तो ज्ञानी का यह देह स्थूल कैसे रह जाता है उन मूर्खों को समझाने के लिए श्रुति ऊपरी दृष्टि ऊपरी दृष्टि से प्रारब्ध को उसका कारण बता देती है वह विद्वान को देहादि का सत्य स्व समझाने के लिए ऐसा नही कहती ; क्योंकि श्रुति का अभिप्राय तो एकमात्र परमार्थ वस्तु का वर्णन करने से ही है। ज्ञानी और अज्ञानी को समझाने की भाषा मे भिन्नता रखनी ही पड़ती है। जिस भाषा मे ज्ञानी अथवा विद्वान को समझाया जाता है उस भाषा मे मूर्ख को

आकाश तत्व को कैसे शुद्ध करें?

हमारी पंचतत्व श्रृंखला में आज पढ़ते हैं आकाश तत्व के बारे में। यह एक ऐसा तत्व है जिस पर बाकी के चारों तत्व टिके हुए हैं। क्या कुछ ऐसा है जो हम आकाश को अर्पित कर के उसे अपने लिए फायदेमंद बना सकते हैं? आकाश तत्व को कैसे शुद्ध करें? आज पढ़ते हैं आकाश तत्व के बारे में। यह एक ऐसा तत्व है जिस पर बाकी के चारों तत्व टिके हुए हैं। क्या कुछ ऐसा है जो हम आकाश को अर्पित कर के उसे अपने लिए फायदेमंद बना सकते हैं? आधुनिक विज्ञान यह स्वीकार करने लगा है कि आकाशीय बुद्धि या ज्ञान जैसी कोई चीज होती है। इसका मतलब है कि आकाश में एक खास तरह की बुद्धि होती है। सूर्योदय के बाद, इससे पहले कि सूर्य तीस डिग्री का कोण पार करे, फिर दिन में एक बार और सूर्य के अस्त होने के बाद एक बार आकाश की ओर देखें और शीश झुकाएं - वहां बैठे किसी देवता के लिए नहीं, बस आकाश के लिए। यह आकाशीय बुद्धि आपके साथ कैसा व्यवहार करती है - वह आपके हित में काम करती है या आपके खिलाफ, इससे तय होगा कि आपका जीवन कैसा होगा। आप एक खुशकिस्मत प्राणी हैं या आप अपना बाकी का जीवन धक्के खाते हुए बिताएंगे, यह आपकी इस योग्यता पर निर्भर करता है कि जाने या अनजा

जन्म और मृत्यु

परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन  जीवितो यस्य कैवल्यम् विदेहो$पि स केवलः।  समाधि निष्ठितामेत्य निर्विकल्पो भवानघ:।।       अर्थात्--जिसको जीवन काल में ही कैवल्य उपलब्ध् हो गया है, वह शरीरसहित होने पर भी ब्रह्मरूप रहेगा। इसीलिये समाधिष्ठ होकर सभी प्रकार के विकल्पों से शून्य हो जाना चाहिए।       उपनिषद के इस श्लोक में कितना गूढ़ अर्थ छिपा हुआ है। वास्तव में मनुष्य का जीवन कितना मूल्यवान है ? लौकिक और पारलौकिक  दृष्टि से जो कुछ मनुष्य को पाने योग्य वस्तु है, उसे जीवन के रहते ही पाया जा सकता है। लेकिन ऐसे बहुत से व्यक्ति भी हैं जो मृत्यु के बाद की प्रतीक्षा करते हैं। उनका कहना है कि इस संसार में, इस शरीर में रहते हुए मुक्ति को, ब्रह्म को नहीं प्राप्त किया जा सकता। यह सब मृत्यु के बाद ही सम्भव है।        जो लोग ऐसा सोचते हैं, वास्तव में वे भारी भ्रम में हैं। सच बात तो यह है कि जो जीवन के रहते नहीं पाया जा सकता, वह मृत्यु के बाद भी नहीं पाया जा सकता।         मनुष्य का जीवन एक अवसर है--

मुक्ति कैसे प्राप्त हो?

----------: आणवमल ही जन्म-जन्मान्तर के सुख-दुःख, क्लेश- चिंता का कारण हैं :----------- ****************************** परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन              मुक्ति कैसे प्राप्त हो?             *****************       चौरासी लाख योनियों का भ्रमण करने के बाद कहीं जाकर मानव योनि प्राप्त होती है। अन्य योनियों में सब कुछ रहता है पर 'मन' नहीं रहता। 'मन' की उपलब्धि होती है केवल मनुष्य को। इसीलिए उसे 'मनुष्य' कहते हैं। मन से मनुष्य बना। मनुष्य मानव इसलिए कहलाता है क्योंकि वह मनु की सन्तान है। जब पहली बार जीव मानव-तन को उपलब्ध होता है ,तो उस अवस्था में उससे लिप्त पिछले चौरासी लाख योनियों के पशुत्व भरे न जाने कौन-कौन से संस्कार रहते हैं। इन्हें तंत्र कहता है--'आणव मल'-- "मिथ्याज्ञानमधर्मश्चासक्तिहेतुश्च्युतिस्तथा। पशुत्वमूलं पंचैते तन्त्रे हेयाधिकारितः।। अर्थात्--असत्य, अज्ञान, अधर्म, आसक्ति और पशुता--ये पांच ऐसे प्रमुख हेय और त्याज्य दुर्गुण आ

अष्टांग योग आसन और प्राणायाम

शरीर धर्म को साधने का सबसे पहला साधन है यह सुत्र अपने आप मे अति महत्वपुर्ण है लेकिन इस परम वचन को बिना उसका मर्म समझे उन लोगो ने अपना लिया है जो केवल शरीर को महत्व देते है शरीर कोस्वस्थ और मजबुत बनाने के प्रयास मे रहते है जो कसरत करते व्यायाम करते है और करते है पहलवानी धर्म साधना के प्रथम चरण की तरह नही  ध्यान व योग के प्रचलित रूप भी शरीर की उपेक्षा करना सिखाते है अष्टांग योग केवल आसन और प्राणायाम की कुछ क्रियाओं मे ही सिमट कर रह गया है योगासनों का उपयोग लोग स्वास्थ्य का लाभ के लिये ही करते है देह के रहस्य को जानने समझने  के लिए नही वेशरीर मन का गुलाम बनाकर प्रसन्न होते है उनके लिये  योग का अर्थ है इन्द्रियो का दमन कर शरीर को अपने वश मे करना योग का लोकप्रिय रूप त्याग पर आधारित है योग पर नही  एकमात्र तंत्र ही एक एसा शास्त्र है जो शरीर को अन्तर्विज्ञानकी दृष्टि से देखता है मनऔर तन के संघर्ष में तन को जीतने दे तन को मन पर हावी होने दे तन बहुत अनुभवी है उसकी प्रज्ञा लाखो वर्ष पुरानी है तन सीधे प्रकृति से जुडा है इस विश्व को चलाने वाला जो नियम है उसी को धाराएं शरीर के भीतर भी स्पन्दित होती

तंत्र साधना के मार्ग

{{{ॐ}}}                                                                       #_रहस्य_ तंत्र के मुख्य दो ही मार्ग  है इन्हीं विभिन्न सम्प्रदायों का उदय हुआ है १ ,वैदिकमार्ग २, शैवमार्ग। इनमे से वैदिकमार्ग को दक्षिणमार्ग  और शैवमार्ग को भी वाममार्ग  कहते है । गोरखनाथ जी के द्वारा शाबर मंत्र, जैनमार्ग, बौद्धमार्ग, मे भी साधनाए की जाती है पर वे सब वाममार्ग से ही प्रभावित है। आज ये दोनो मार्ग आपस मे मिलकर खिचड़ी बन गये है। अपितु ये आज से नही मिले आज से हजारो वर्ष पहले प्रजापति दक्ष के यज्ञ मे हुए युद्ध के समय मिल गये थे। अतः आज बडे बडे तंत्रमार्गी एवं विद्वान भी इनमे भेद कर पाने स्थित नें नही है विशेषकर दक्षिणमार्गी ! वे आज वाममार्ग के  देवी देवताओं को पूजा अर्चन कर रहे है इनमें भगवती (आधाशक्ति), दुर्गा, महालक्ष्मी, आदि है और गणेशजी भी वाममार्ग के ही देवता है, क्योंकि ये शिवकुल के देवता है , विष्णुकूल के नहीं। इसी प्रकार महालक्ष्मी को विष्णुकुल ने समुद्र मथंन(सामाजिक- धार्मिक-आध्यात्मिक- मथंन जो दक्ष के युद्ध के बाद हुआ) के पश्चात विष्णु से जोड दिया(स्मरण करें पौराणिक रूपक) आज

ISRO makes breakthrough demonstration of free-space Quantum Key Distribution (QKD) over 300 m

For the first time in the country, Indian Space Research Organisation (ISRO) has successfully demonstrated free-space Quantum Communication over a distance of 300 m. A number of key technologies were developed indigenously to accomplish this major feat, which included the use of indigenously developed NAVIC receiver for time synchronization between the transmitter and receiver modules, and gimbal mechanism systems instead of bulky large-aperture telescopes for optical alignment. The demonstration has included live videoconferencing using quantum-key-encrypted signals. This is a major milestone achievement for unconditionally secured satellite data communication using quantum technologies. The Quantum Key Distribution (QKD) technology underpins Quantum Communication technology that ensures unconditional data security by virtue of the principles of quantum mechanics, which is not possible with the conventional encryption systems. The conventional cryptosystems used for data-encryption re

तत्त्वासार

{{{ॐ}}}                                                             #  वास्तव मे सृष्टि मे एक ब्रह्म की ही सत्ता है जो विभिन्न रूपों मे अभिव्यक्त हुआ है । इसलिए सभी रूप उससे भिन्न नही है बल्कि भ्रम के कारण आत्मज्ञान के अभाव के कारण ये भिन्न भिन्न प्रतीत होते है । इसी प्रकार शरीर भी भ्रम वश उससे भिन्न प्रतीत होता है तथा जिस भ्रम के कारण प्रतीत होने वाले की सत्ता नही होती ,जिस भ्रम से रस्सी मे सर्प दिखाई देता है किन्तु उसमे सर्प की सत्ता नही होती ,वह रस्सी ही है ।इसी प्रकार शरीर भी भ्रम मात्र ही है । जिनको ऐसी शंका होती है कि यदि ज्ञान से अज्ञान का मूल सहित नाश हो जाता है, तो ज्ञानी का यह देह स्थूल कैसे रह जाता है उन मूर्खों को समझाने के लिए श्रुति ऊपरी दृष्टि ऊपरी दृष्टि से प्रारब्ध को उसका कारण बता देती है वह विद्वान को देहादि का सत्य स्व समझाने के लिए ऐसा नही कहती ; क्योंकि श्रुति का अभिप्राय तो एकमात्र परमार्थ वस्तु का वर्णन करने से ही है। ज्ञानी और अज्ञानी को समझाने की भाषा मे भिन्नता रखनी ही पड़ती है। जिस भाषा मे ज्ञानी अथवा विद्वान को समझाया जाता है उस भाषा मे मूर्ख को

शंकर पर आरूढ़ जगज्जननी महाकाली की छवि रहस्य

---------------: ****************************** परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि वन्दन       पाश्चात्य अनुसन्धान कर्ता जो इस समय योग और तंत्र पर खोज कर रहे हैं, उनका कहना है कि योग-तंत्र-विज्ञान विशाल, अनन्त गहराइयों वाला समुद्र है जिसके जल की एक बूंद ही भौतिक विज्ञान है।       यह सत्य है कि स्थूल और सूक्ष्म वायु में होने वाली ध्वनि- तरंगें एक समय नष्ट हो जाती हैं, परंतु सूक्ष्मतम वायु (ईथर) जो अखिल ब्रह्माण्ड में सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है, में पहुँचने वाली ध्वनि-तरंगें कभी किसी काल में नष्ट नहीं होतीं।      आधुनिक उपकरणों द्वारा ध्वनि को विद्युत्-प्रवाह में बदल कर उसको सूक्ष्मतम अल्ट्रासॉनिक रूप दिया जाता है। इसलिए इसी वैज्ञानिक विधि से रेडियो, वायरलैस, आदि का निर्माण हुआ था। बाद में उसका और विकसित रूप टेलीविजन का निर्माण हुआ जिसमें ध्वनि- तरंगों को प्रकाश-तरंगों में बदल दिया गया और जिन्हें चित्र-दर्शन के रूप में हम देखते है। ईथर में होने वाले कम्पन, आवृत्ति, फ्रीक्वेंसी की स

चेतन मन और आत्मा के बीच अचेतन मन है।

पांच ज्ञानेंद्रयों की जो शक्ति है, वह मन की ही शक्ति है।  मन की शक्ति से ही ये इन्द्रियां कार्य करती हैं। पर यह भी जानना ज़रूरी है कि मनःशक्ति द्वारा एक समय में एक ही इन्द्रिय कार्य करती है, दूसरी नहीं।  गहरी सुप्त अवस्था में इन्द्रयों से मन का सम्बन्ध नहीं रहता है। स्वयं मन ही सभी इन्द्रियों का कार्य करता है उस समय।  मन का एक रूप और है जिसे हम 'अचेतन मन' कहते हैं। चेतन मन और आत्मा के बीच अचेतन मन है।  चेतन मन और अचेतन मन आत्मा के ही अंग हैं।  आत्मा परमात्मा का ही एक रूप है और उस रूप में समस्त ब्रह्माण्ड की शक्ति विद्यमान है। आत्मा कालातीत है। सभी अवस्थाओं में वह समान है।  अचेतन मन एक विशेष सीमा तक आत्मशक्ति को क्रियान्वित करता है।  यही कारण है कि वैज्ञानिक अचेतन मन को अलौकिक शक्ति का भंडार कहते हैं।  जब हम कभी ऐसी स्थिति में होते हैं तो उस समय हमारे चेतन मन से आत्मा का सीधा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। फलस्वरूप भावी घटनाओं का संकेत और पूर्वाभास होता है। चेतन मन का सम्बन्ध लौकिक जगत से है और अचेतन मन का सम्बन्ध पारलौकिक जगतों से है।  योगिगण ध्यानयोग के द्वारा चेतन मन

स्वयं की खोज

समाधि में साधक  ध्यान से ही जाएगा। ध्यान है परम संकल्प। ध्यान का अर्थ समझ लो। ध्यान का अर्थ है, अकेले हो जाने की क्षमता। दूसरे पर कोई निर्भरता न रह जाए, दूसरे का खयाल भी विस्मृत हो जाए। सभी खयाल दूसरे के हैं। खयाल मात्र पर का है। जब पर का कोई विचार न रह जाए, तो स्व शेष रह जाता है। और उस स्व के शेष रह जाने में स्व भी मिट जाता है, क्योंकि स्व अकेला नहीं रह सकता, वह पर के साथ ही रह सकता है। जिस नदी का एक किनारा खो गया, उसका दूसरा भी खो जाएगा। दोनों किनारे साथ-साथ हैं। अगर सिक्के का एक पहलू खो गया, तो दूसरा पहलू अपने आप नष्ट हो जाएगा। दोनों पहलू साथ-साथ हैं। जिस दिन अंधकार खो जाएगा, उसी दिन प्रकाश भी खो जाएगा। ऐसा मत सोचना कि जिस दिन अंधकार खो जाएगा, उस दिन प्रकाश ही प्रकाश बचेगा। इस भूल में मत पड़ना, क्योंकि वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस दिन मौत समाप्त हो जाएगी, उसी दिन जीवन भी समाप्त हो जाएगा। ऐसा मत सोचना कि जब मौत समाप्त हो जाएगी तो जीवन अमर हो जाएगा। इस भूल में पड़ना ही मत। मौत और जीवन एक ही घटना के दो हिस्से हैं, अन्योन्याश्रित हैं, एक-दूसरे पर निर्भर हैं। तो जब

नींबू अदरक युक्त गन्ने का रस

ये नींबू, अदरक युक्त गन्ने का रस है, जो यूपी के दारोला मेरठ से कई देशों को निर्यात किया जा रहा है। पर हमारे यहां लोग कोकाकोला, पेप्सी और थम्सअप जैसे हानिकारक पेय पदार्थ पीकर गर्व का अनुभव करते हैं। हमारे स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाली इन विदेशी कंपनियों का बाय बाय कहकर गन्ने का रस और शिकंजी पीना चाहिए। इससे ना सिर्फ हमारा करोड़ो रुपया पेय पदार्थ के नाम पर विदेश जाने से बच जाएगा, वही दुसरी और हमारे देश के ही गरीब भाईयों को रोजगार भी मिलेगा।  एक भारत - श्रेष्ठ भारत नोट- इस पोस्ट का मतलब केवल यह बताना है के हमारे पास ताजा गन्ने का रस आदि आसानी से उपलब्ध है हमे उसका सेवन करना चाहिए , विदेशों मे ऐसी सुविधा नही इसलिए उन्हे बोतलबंद मंगवाना पडता है।

सप्तशती और गीता

{{{ॐ}}}                                                             # श्रीमद्भागवत गीता अर्थात श्री भगवान श्री कृष्ण ने गायी यद्यपि गीता एक उपदेश है फिर भी उसे गीता लयबद्ध रचना कहा गया है क्योंकि कर्म के दुस्तर सागर के ऊपर तैर रहा है वह निष्काम कर्म योग का उपदेश है जिसमें गान का सा माधुर्य है लय है वह तिरंगावलियों से ऊपर उठकर कर्मवीचियों के नर्तन को देखते रहने का दृष्टा भाव भी है। ऐसी अवस्था ज्ञान की ही होती है और आश्चर्य यह है aकि इस गीत को अतीव चंचल तथा घटना प्रधान समरांगण में गाया गया है बांट के टुकड़े को बंसी बनाकर आये रागपुरुष के लिए ज्ञान ही एकमात्र शैली है वह पूर्ण पुरुष राग में ही व्यक्त हो सकता है इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि  तटस्थभाव का सोदाहरण विवेचन कर्म संवेग में अच्छी तरह समझ में आ सकता है। गीता वेदांत का ग्रंथ है इसका प्रमुख पात्र अर्जुन है मोह के आवेश में से उत्पन्न अवसाद अर्जुन को अक्रांत कर देता है उसके प्रश्नों में उत्सुकता नहीं है एक निराश भाव है जो कृष्ण से सीधा उत्तर मांगता है इस जय पराजय से क्या होना है यह व्यर्थ का रक्त पात्र अन्ततः किस लिए यह भविष

आत्मा और ध्यान की साधना

जब आत्मा ध्यान की साधना के द्वारा निखर जाती है तो वह परमात्मा मय हो जाती है। तब उसमें तीन गुण आ जाते हैं।   प्रकृति का गुण जड़ता यानी सत्यता, यह शरीर सत्य है जो परीवर्तनशील है।  यह परमात्मा का एक गुण है। सत्य अर्थात जो परीवर्तनशील हर पल नया है।  दूसरा गुण मन की चेतनता  यानी जागरुकता तीसरा गुण आनन्द है इसलिए इसे सत्य-चित्त-आनन्द कहते है।  और इस सत्य चेतना यानी आत्मा के आनन्द को प्राप्त करना ही मानव जीवन का परम उदेश्य है, और इसको जानने के बाद जो उपलब्ध होता है।  इसका सार रहस्यपूर्ण अगोचर अदृश्य आनन्द जिसे मैं चोथी सत्ता कहता हूं। वैज्ञानिक भी एक चोथी सत्ता को स्वीकार करते है जिसे वह क्वार्क के नाम से जानते है।  जिस प्रकार दुध से दही, दही से छाछ और छाछ से घी निकलता है। यह सब मथने के बाद मिलता है। बिचार मंथन करना है शरीर जो दुध की तरह से है। इसको पहले समझना होगा जो अपना पहला चरण है।         परमात्मा तो हम सब के प्रत्येक प्राणी के अन्दर विद्यमान है। यदी हम सब को ऐसे देखे की सब में परमात्मा है। तो हम सव का ऐश्वर्य ही बढें । और इसके विपरीत देखते है तो वही होती है जो उस मठाधीस और उ

गुलाब की खेती करने वाले कृषक जय नारायण सिंह जी की वार्ता

  गुलाब की खेती करने का समय 15 नवम्बर  से लेकर 15 जनवरी के बीच जब टम्प्रेचर  5 या 7 डिग्री  रहता है तभी लगाया जाता हैलगानै की बिधि  1,,खेत मे बर्मी कम्पोष्ट, या नेडफ कम्पोष्ट  या सडी गोबर की खाद प्रति एकड 25 ट्राली के हिसाब से  डालकर खेत की खूब गहरी जुताई करदे। 2,,फिर खेत मे लाइन से लाईन की दूरी व पौध से पौध की दूरी करीब 1मीटर की बनाकर खेत मे गड्ढे 1फुट गहरे खोद दे 3,, गड्ढे करीब 10 दिन तक खुदे हुये पडे रहने दे ताकि गड्ढे में  खूब  धूप लग जाये और गड्ढे की खुदी हुई मिट्टी भी खूब सूख जाये ताकि मिट्टी के बीमारी वाले बैक्टीरिया  मर जाये।। 4,,इसके  बाद पौध की ब्यवस्था  कर ले एक एकल मे 5500 गड्ढे खोदेगे और 5500 पौध की ब्यवस्था  करनी होगी।।  5,,, जब पौध आ जाये तो लगाने के समय गड्ढे मे प्रति गड्ढा 50 ,,50 ग्राम दीमक की दवा डाल देइसके बाद प्रति  गड्ढे मे 100,,100 ग्राम डी ए पी की खाद डालदे इसके बाद पौध को गड्ढे में  रखकर  बर्मी या नूडल या सभी गोबर की खाद उसी गड्ढे की जो खुदी हुई मिट्टी  पनि है उसी मे खाद मिलाकर गड्ढे को भर दे जब पूरे खेत मे पौध लग जाये तो तुरन्त  पीछे सेखेत को पानी से खूब भर दे

सृस्टि का परमतत्व

सृस्टि का परमतत्व चैतन्य है। वेदान्त उसे ईस्वर कहता है। साख्य दर्शन उसे पुरुष कहता है। तथा तंत्र शास्त्र उसे शिव कहता है।  यह सृस्टि उसी चैतन्य तत्व की शक्ति है। जिसे वेदान्त मायाशक्ति कहता है। साँख्य इसी को प्रकृति कहता है। तथा तंत्र शास्त्र इसे भैरवी कहता है। तथा शिव को भैरव भी कहा जाता है। यह भैरबी शक्ति अपनी परावस्था में शिव से अभिन्न रहती है। एकाकार रहती है। किन्तु अपनी अप्रवस्था में यह सृस्टि की रचना करती है। शरीरो में यही शक्ति प्राणों के रूप में सभी जीवधारियों में विद्यमान रहकर उन्हें जीवन प्रदान करती है प्राणों की इस शक्ति से सभी जीव धारिया प्राणी जीवन प्राप्त करते है। प्राणों के निकल जाने पर वे म्रत्य घोषित कर दिए जाते है अतः जीवन का आधार यही प्राण शक्ति है। यह प्राण शक्ति चेतन तत्व शिव की ही शक्ति है। किंतु चेतन तत्व केवल ज्ञान स्वरूप है। वह क्रिया नही करता सभी क्रियाये उसकी शक्ति से ही होती है। शरीर मे यही प्राण शक्ति स्वास परस्वाश के रूप में कार्य करती है। योग शास्त्रो में इसी को रेचक पूरक व कुम्भक कह जाता है। स्वाश परस्वाश की यह क्रिया इस परादेवी का ही स्पंदन है। यह क्रिय

सप्तशती के प्रयोग

{{{ॐ}}}                                                              अनेक बार अनेक तरह की बात का स्पष्टीकरण दिन कर देने के बाद भी कुछ भाग्यवादी ऐसे मिल जाते हैं जो भीतर से उत्तेजित कर देते है उत्तेजित इसलिए कि भाग्यवाद के सिद्धांत को पूरी तरह समझे बिना वह एक प्रतिबद्धता प्रमाणित करते हैं aकर्म नहीं कांड करते हैं वाद को समझाने वाला भाग्य को स्वीकार नहीं करेगा पर केवल भाग्य को ही सर्वस्व मानने वाला कर्म के यथार्थ को नहीं समझता यह निश्चित है। इसमें कोई संशय नहीं कि देश श्रंखला के कर्म से मनुष्य के रूप में जो रचना है वह संपूर्ण है समर्थ है और स्वतंत्र भी है मनुष्य तक जितने देह हैं वह सब बद्ध हैं उतना ही शारीरिक स्तर पर भी और बौद्धिक स्तर पर भी जितनी बुद्धि विकसित है उतना ही देह परिमार्जित है दुख तब होता है जब हम भाग्य की पूजा करते हुए प्रकृति का अपमान करते हैं अपमान इस तरह की यह उन्नत दे देकर प्रकृति ने हमें कर्म करने की स्वतंत्रता दे दी है और हम उस स्वतंत्र का पता का उपयोग न कर के भाग्य के अधीन समझ बैठते हैं। लोग दही का व्यापार करते हैं वह दूध के बारे में जानते हैं तो हैं पर व

ऊर्जा डायग्राम

ब्रह्माण्ड एक ऐसे सूक्ष्म तत्त्व से निर्मित हुआ है, जो शुद्ध सूक्ष्म विरल और परम गति वान एव तेजवान है इस तत्त्व से ब्रह्माण्ड के निर्माण की एक विस्तृत प्रक्रिया है, किसी ने इस तत्त्व को आत्मा कहा है किसी ने शिव कहा है तो किसी ने ब्रह्म। इसी तत्व से उत्पन्न ब्रह्माण्ड एक विशिष्ट ऊर्जा के डायग्राम मे क्रिया कर रहा है । इस डायग्राम से ऊर्जा तरंगें उत्पन्न हो रही है जैसा ऊर्जा डायग्राम इस ब्रह्माण्ड का है वैसा ही डायग्राम किसी प्राकृतिक इकाई का होता है, चाहे वह पृथ्वी हो सूर्य हो, चाँद हो, और मंडल हो या निहारिका हो , वैसा ही ऊर्जा डायग्राम प्रत्येक जीव, प्रत्येक वनस्पति, प्रत्येक कीटाणु, प्रत्येक परमाणु का होता है, और सब एक दुसरे से जुडे हुए होते है ठीक उसी प्रकार किसी जीव के कोशाणु एक दुसरे से जुडे होते है।  यह ऊर्जा डायग्राम इस प्रकार है जैसे सूर्य के केन्द्र मे उसका घन पोल है वहा से जो किरणे सतह से विकरित होती है वे ऋण ऊर्जा तरंगें है किन्तु पृथ्वी ये लिए वे तरंगें यानि सूर्य की किरणे धन तरंगें है और उन्ही तरंगों के कारण पृथ्वी का नाभिक काम करता है, पृथ्वी के लिए धनघ्रुव है और उसकी सतह

वेदो_का_मनोमयी_कोश

{{{ॐ}}}                                                         #वेदो_का_मनोमयी_कोश मनस शरीर यानि मनोमय शरीर का विकास साधना के द्वारा किया जाता है यह इक्कीस वर्ष के बाद विकसित हो सकता है इसे विकसित होने सअतीन्द्रिय शक्ति आ जाती है जैसे सम्मोहन ,दुर संरेक्षण दसरो का मनपढ़ लेना शरीर से बहार निकल कर यात्रा करना अपने को शरीर से अलग करना वनस्पतियो  के गुण पता लगना उपयोग करना  आदि। चरक और सुश्रुत ने इसी सिद्धि से शरीर के बारिक  से बारिक अंगो का भी वर्णन किया था। सुषुम्ना नाडी़ ,कुण्डलिनी और षट् चक्रों  को विज्ञान अभी भी नही खोज पाया। इन विचार तरगों  का प्रभाव पदार्थ पर भी पडता है संकल्प से वस्तु  हिलाई व तोडी  जा सकती है। विज्ञान ने भी इसके कई प्रयोग किये है योग की समस्त सिद्धियाँ जो पांतजलयोग दर्शन मे दी गयी है वे इसी शरीर के विकसित होने से आ जाती है कुण्डलिनी भी इसी शरीर की घटना है। जादु चमत्कार इसी का विकास है और इसका केन्द्र है अनाहत चक्र  जब अनाहत जाग्रत होता है तो ये सिद्धियाँ आ जाती है इसके जाग्रत होने से काल व स्थान की दुरी मिट जाती है  वह बिना मन इन्द्रियो के सीधा मन से देख व सुन सक

काल का रहस्य

------------------: जगत के सभी पदार्थ कालशक्ति के अधीन हैं:-------------------- **************************** परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन  ---------:साधना का प्रयोजन है-- कालक्षय पर विजय प्राप्त करना:--------- ******************************         मीरा कृष्ण के असीम प्रेम में डूबी रहती थी। जो मिला, खा लिया। उसे न तन का होश, न खाने की चिन्ता। उन्हें विष दिया गया, उसे भी कृष्ण का प्रसाद समझ कर पी गयीं वह। लेकिन विष का तो असर ही नहीं हुआ। ऐसा क्यों ?--कभी इसपर लोगों ने विचार किया ? प्रेम रस के रहते फिर किसका असर होगा शरीर पर भला ! यह प्रेम ही तो वास्तविक तत्व है जो ब्रह्म रूप है--'रसो वै सः।' वही परम तत्व का सार है जिसे मीरा ने अपने में आत्मसात् कर रख था। फिर उन्हें क्या चिन्ता कि कोई उन्हें अमृत पिला रहा है या पिला रहा है कोई विष। वह तो अमृत और विष का अतिक्रमण कर बहुत आगे निकल चुकी थीं।        इसी प्रकार मात्र सोलह वर्ष की अवस्था में आदि शंकराचार्य चारों वेदों के ज्ञ